फ़िल्म ‘इलहाम’ के निर्देशक ध्रुव हर्ष बोले, ‘मैं हमेशा विद्यार्थी बना रहना चाहता हूँ’

दैनिक भास्कर सेवा

नई दिल्ली: जागरण फिल्म फेस्टिवल के 13वें संस्करण में जब युवा निर्देशक ध्रुव हर्ष (Dhruva Harsh) अपनी फिल्म ‘इलहाम’ (Elham) की स्पेशल स्क्रीनिंग के लिए पहुंचे, तो हमने उन्हें स्पॉट किया। बच्चों के लिए बनी उनकी यह फिल्म ‘लिटिल लाइट्स’ श्रेणी में प्रदर्शित हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी कर चुके और जेएनयू से पोस्ट-डॉक्टरेट कर रहे ध्रुव हर्ष एक कवि, लेखक और नाटककार भी हैं। हमने उनसे उनकी जीवन और सिनेमा को लेकर उनकी सोच पर खुलकर बात की।

पढ़िए बातचीत के कुछ खास अंश-

DB (दैनिक भास्कर): ध्रुव जी, जागरण फिल्म फेस्टिवल में आपकी फिल्म ‘इलहाम’ का दोबारा चयन हुआ है। एक निर्देशक के तौर पर आपको कैसा महसूस हो रहा है?

DH (ध्रुव हर्ष): यह मेरे लिए बहुत ही भावुक और गर्व का पल है। जागरण फिल्म फेस्टिवल दुनिया के सबसे बड़े ट्रैवलिंग फिल्म फेस्टिवल्स में से एक है। मेरी फिल्म का यहाँ दोबारा चुना जाना, यह साबित करता है कि कहानी में जो सच्चाई और मासूमियत है, वह दर्शकों के दिल को छू रही है। यह मेरे लिए एक प्रोत्साहन है कि मैं ऐसी ही ईमानदार कहानियां गढ़ता रहूं।

DB: ध्रुव जी, अब आप हमें अपने बचपन और गोंडा (उत्तर प्रदेश) से जुड़ी यादों के बारे में बताइए।

DH: मैं गोंडा जिले में मनकापुर तहसील के एक गाँव, बंकसिया शिवरतन सिंह (कोट) से आता हूँ। दादा जी ज़मींदार थे उन्हीं के नाम से गाँव का नाम है। बहुत हरा-भरा गाँव है। थोड़ी दूर पर बिसुही नाम की एक छोटी नदी है और उस पार जंगल। पक्षियों और जानवरों से बहुत लगाव रहा है। बचपन बहुत खूबसूरत था। घर पर आम के बाग हैं। मेरी चार बहने हैं। उनका मेरे जीवन में बहुत महत्व है। मम्मी और पापा से जो कमी रही उन्होंने पूरा किया। अभी भी जब सुकून ढूँढना होता है तो मैं गाँव चला जाता हैं, वहाँ जाकर दुनियावी सारी शिकायतें ख़त्म हो जाती हैं। यहीं से एक साहित्यिक रुचि पैदा हुई, जो धीरे-धीरे सिनेमा की ओर बढ़ती चली गई।

DB: आपके जीवन में स्कूली दिनों का कितना प्रभाव रहा, खासकर केंद्रीय विद्यालय संगठन से पढ़ाई करने का?

DH: केंद्रीय विद्यालय ने बहुत कुछ दिया। वहाँ से ये सीखा की पढ़ना ज़रूरी है। अच्छे यार दोस्त बनें। टीचर्स बहुत अच्छे थे। सीमा पुरम मैडम इकोनॉमिक्स और मैथ्स पढ़ती थीं। अभी भी टच में हैं। वहाँ एक दोस्त बना जिसका नाम राहुल पाठक था, उसने किसी शिक्षक और ट्यूटर से ज़्यादा ध्यान दिया। अभी मेरी भांजी केंद्रीय विद्यालय में पढ़ती है, उसको ड्रेस में देखकर अच्छा लगता है। अभी दिल्ली जागरण फ़िल्म फेस्टिवल में केंद्रीय विद्यालय और अन्य स्कूलों के बच्चों ने फिल्में देखीं, अच्छा लगा। उनके बीच में बैठकर लगा मैं अभी भी बच्चा हूँ।

DB: बचपन में फिल्मों या साहित्य से जुड़ा कोई ऐसा अनुभव जो आज भी आपके मन में बसा हो?

DH: घर में मैं सबसे छोटा था, बहने बड़ी थीं। जो फ़िल्म या धारावाहिक मैं मिस कर देता था उनकी कहानियाँ वे हमें बारी- बारी से सुना दिया करती थी। घर में फ़िल्म देखने का क्रेज़ था। बड़ी बहन सीमा सिंह हिंदी और संस्कृत लिटरेचर की स्टूडेंट थी। वे ख़ूब कविता कहानियाँ सुनाया करती थी। साहित्य और सिनेमा के प्रति रुचि पैदा करने में उनका बहुत बड़ा योगदान है। कालिदास, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और निराला जी के विषय में सबसे पहले दीदी से ही सुना था।

DB: परिवार ने आपके फ़िल्म बनाने के निर्णय में किस तरह का सहयोग दिया?

DH: ऐसा कोई प्रत्यक्ष सहयोग तो नहीं कह सकता। हमारी पृष्ठभूमि बिलकुल अलग थी। इलाहाबाद में रहते हुए साहित्य के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई। फिर तो कविता, कहानियों, नाटकों से होते हुए फ़िल्मों का एक्सपोज़र हुआ। यूरोपियन सिनेमा देखने पर लगा फ़िल्मों में कुछ कर पाने का एक अलग स्पेस है है, जिससे बहुत कुछ किया जा सकता है। चूँकि इलाहाबाद एक सांस्कृतिक शहर है, इसलिए वहाँ रहते हुए नाटकों के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई। चार-पाँच नाटक लिखे। वहाँ रहते हुए एक फ़िल्म बनाई जिसने मुंबई जाने के सपने में एक पंख दिया। डॉक्टरेट की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद जब परिवार से मुंबई जाने की इच्छा जताई तो इतना विरोध नहीं हुआ।

DB: आपकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि (अंग्रेजी में पीएचडी) और साहित्य व दर्शन की पढ़ाई ने आपके फ़िल्मी दृष्टिकोण को कैसे प्रभावित किया?

DH: (हंसते हुए) यही तो मेरी सबसे बड़ी ताक़त है। मैं हमेशा विद्यार्थी बना रहना चाहता हूँ। साहित्य और दर्शन की पढ़ाई से जीवन को बेहतर ढंग से देख पाते हैं। आप फिल्म जगत में सर्वे करवा लो, आपको ह्यूमैनिटीज़ पढ़े हुए फ़िल्मकार अलग दिखेंगे। जो सौंदर्यबोध (एस्थेटिक सेंसिबिलिटी) आपको उनकी फ़िल्मों में दिखेगी, वह बात अन्य स्ट्रीम से आए लोगों में कम दिखाई देगी। मैं मानता हूँ कि फिल्ममेकिंग भी एक अकादमिक काम है, जिसके जरिए बहुत सारे विद्यार्थियों तक एक साथ पहुँचा जा सकता है, इसलिए मैंने पढ़ाने के ऊपर फिल्म निर्माण को चुना।

DB: फिल्मों की ओर आपका रुझान कब और कैसे शुरू हुआ?

DH: इलाहाबाद से। पहले थिएटर फिर सिनेमा। सबसे ज़्यादा श्रेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय को देना चाहूँगा। वहाँ अच्छे शिक्षक मिले जिन्होंने साहित्य के प्रति और गहरी रुचि पैदा की।

DB: आपकी पहली फिल्म बनाने का अनुभव कैसा रहा?

DH: बहुत दिलचस्प। “ऑनरेबल मेंशन” नाम की एक छोटी फ़िल्म थी। बहुत मैजिकल अनुभव था। पहले दायरा छोटा था। ख्वाहिशें इतनी बड़ी नहीं थीं। पहला चैलेंज यही था कि जो बना रहा हूँ वह फ़िल्म की तरह दिखे। मैं उस फ़िल्म से बस इतना चाहता था कि मेरा अंग्रेज़ी विभाग उस फ़िल्म को देख ले। खैर बाद में जो सोचा उससे ज़्यादा हुआ, फ़िल्म कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों तक गई। कई पुरस्कार जीते । उस फ़िल्म की डिस्कवरी ये थी कि मुझे मेरे सहयोगी और सिनेमेटोग्राफ़र के रूप में अंकुर राय मिले जिसके साथ आगे की बाक़ी सारी फिल्में बनाई।

DB: आपकी फिल्म ‘हर्षित’, जो शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ से प्रेरित है, को लेकर दर्शकों की प्रतिक्रिया कैसी रही?

DH: हर्षित (Harshit) को करोड़ों लोगों ने देखा है। कई पुरस्कार भी मिले और बहुत सराहना भी हुई। मैं कहूँगा उम्मीद से बड़कर। हर्षित ने मुझे मुंबई में रुकने की वजह दी। कई रिसर्च स्कॉलरों ने हर्षित को अपने शोध सामग्री में भी जगह दी है। आपका काम अकादमिक जगत में जगह बना ले इससे ज़्याद बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है।

DB: डॉक्यूमेंट्री The Last Sketch बनाने के पीछे आपकी सोच क्या थी?

DH: ये रिक्शा चालकों पर बनाई गई एक फीचर डाक्यूमेंट्री है। कोलकाता के बाहर बहुत कम लोगों को इस विषय में पता है कि वहाँ पर ऐसा रिक्शा चलता है जिसे इंसान पैदल खींचता है। खैर हमारा पर्सपेक्टिव भले अलग हो, उनके लिए तो ये भी जीविकोपार्जन का एक साधन है। जिस खून पसीने के कमाई की हम बात करते हैं, ये वही काम है। हम इनके प्रति सहानुभूति भले रख लें लेकिन इनके तन-मन की पीड़ा को कभी नहीं समझ सकते। ये सब देखकर एक इंसान व्यथित होता है, और कुछ न कर पाने की जो कचोट होती है, हम ऐसे डॉक्यूमेंट्रीज के ज़रिए इस अंतर को बस थोड़ा सा समझाने की कोशिश करते हैं। ये समाज का ऐसा तबका है, जिसके चेहरे पर दस-बीस रुपये भी कमाने की ख़ुशी देख सकते हैं।

DB: ‘इलहाम’ में बच्चे ⁠फ़ैज़ान का किरदार बेहद स्वाभाविक लगता है। आपने इतने मासूम कलाकार को कैसे चुना?

DH: ⁠फ़ैज़ान का किरदार हमारी फिल्म की आत्मा है। इस किरदार के लिए हमें एक ऐसे बच्चे की तलाश थी जो अभिनय न करे, बल्कि अपने किरदार को जिए। हमने इसके लिए काफी समय और मेहनत लगाई। ताइयो चान ने इस किरदार को इतनी मासूमियत से निभाया कि वह खुद ही ⁠फ़ैज़ान बन गया। उसकी आंखों में जो डर और प्यार था, वह अभिनय से नहीं लाया जा सकता। मैं मानता हूँ कि एक निर्देशक के लिए सही कलाकार का चुनाव ही उसकी आधी लड़ाई जीत लेता है।

DB: ‘इलहाम’ के पीछे की प्रेरणा क्या थी?

DH: जानवरों से प्रेम। बचपन में तीन चार घटनाएँ ऐसी हुईं जिसने मनः स्थिति अंदर तक प्रभावित किया। मैं बहुत संवेदनशील हूँ। बचपन में मैंने एक तोता पाला था जिसे घरेलू बिल्ली ने मार दिया। फिर एक खरगोश पाला उसे भी बिल्ली ने मार दिया, बाद में एक पपी (पिल्ला) लाया उसे गाँव के कुत्तों ने मार डाला। ये ऐसी घटना थी जो अंदर तक बैठ गई थी। उनकी आज भी याद आती है। ये फ़िल्म उनकी वजह से बन पायी।

DB: इस फिल्म को जब आप बच्चों के बीच देखते हैं, तो आपके अंदर क्या भावनाएँ उमड़ती हैं?

DH: प्योरिटी आती है। मन करता है, फिर से अपने स्कूल लौट जाएँ। मुझे सपने में अपना स्कूल दिखता है। मेरे यार दोस्त और वही शिक्षक दिखायी देते हैं। परीक्षा में अच्छे नंबर लेकर आने हैं, अगर इस दबाव को छोड़ दिया जाए तो वो सबसे खूबसूरत दिन होते हैं। मैं सपने में अब भी अपने स्कूल की यूनिफार्म में पीठ पर बैग टांगे स्कूल के गेट पर खड़ा दिखाई देता हूँ। शायद यही वजह है कि जब भी मैं बच्चों के साथ काम करता हूँ, तो उन्हीं में मुझे अपना बचपन उमड़ता हुआ दिखाई देता है। मैं उन बच्चों में ख़ुद को ही देखता हूँ।

DB: बच्चों की फिल्मों का महत्व और वर्तमान समय में उनकी प्रासंगिकता पर आपके विचार क्या हैं?

DH: सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। बचपन में आपका चित साफ़ होता है। जो भी कविता, कहानी, सिनेमा आप देखते हो वो गहराई तक आपकी चेतना को प्रभावित करती है। अगर बच्चों पर अच्छा सिनेमा बने तो यकीनन वे इससे प्रभावित होंगे। वे आगे चलकर और बेहतर इंसान बनेंगे।

DB: आजकल बच्चों की फिल्में कम बन रही हैं, ऐसा क्यों?

DH: मुझे लगता है कि आज के दौर में बच्चों को केवल मनोरंजन दिया जा रहा है, शिक्षा नहीं। आज की फिल्में बच्चों को उनकी जड़ों और संस्कृति से नहीं जोड़ रही हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। बच्चों के सिनेमा में निवेश कम हो गया है क्योंकि इसे व्यावसायिक रूप से सफल नहीं माना जाता। मेरा मानना है कि हमें बच्चों के लिए ऐसे सिनेमा का निर्माण करना चाहिए जो उन्हें नैतिक मूल्य सिखाए और उनकी कल्पनाशीलता को बढ़ाए।

DB: आप कहते हैं कि फ़िल्म निर्माण आपके लिए दर्शन और भावनाओं को जोड़ने का माध्यम है, इसे थोड़ा विस्तार से बताइए।

DH: जीवन और समय मेरे लिए महत्वपूर्ण है। जीवन का मतलब; इंसानी जज़्बात और रंग, उतार-चढ़ाव, प्रेम, वेदना, मृत्यु, प्रकृति। मेरे लिए सिनेमा महज़ एंटरटेनमेंट का मसला नहीं है, बल्कि अपने समय का एस्थेटिक डॉक्यूमेंट है। जो भी काम मैं कर रहा हूँ, मुझे लगता है इसमें एक किस्म क्लासिसिज्म होना चाहिए, जो ठहरे, और एक अर्थ दे। क्योंकि आप जो भी काम करने जा रहे हैं हैं इसमें बहुत ताक़त है।

DB: भारतीय सिनेमा में बच्चों की फ़िल्मों का भविष्य आप कैसे देखते हैं?

DH: इंडस्ट्री का तो मुझे नहीं पता है, वहाँ चिल्ड्रेन फ़िल्मों की उतनी बड़ी मार्केट नहीं है। बच्चों की फ़िल्मों में उतना पैसा नहीं है। हमारे हिंदुस्तान की ये बदक़िस्मती है कि यहाँ लोग मसालेदार या बिना सिर पैर की फिल्में बनाते हैं। शायद यहाँ की पेरेंटिंग में ऐसा कल्चर भी नहीं है। मैं तो चाहूँगा खूब सारा चिल्ड्रेन लिटरेचर लिखा जाये, और बच्चों पर फिल्में बनें। फ़िल्म डिवीज़न और सरकारों को भी इस दिशा में सोचने की ज़रूरत है।

DB: छोटे कस्बों से आने वाले युवाओं को, जो फ़िल्म निर्माण करना चाहते हैं, आप क्या संदेश देंगे?
DH: पढ़ना ज़रूरी है, खासकर लिटरेचर और दर्शन। जितना हो सकता है, पढ़िये। खूब सिनेमा देखिए। समाजशास्त्र को समझिए। सोशल स्ट्रक्चर और बनती बिगड़ती सभ्यताओं के बीच अभी कितनी इंसानियत बची है, या इंसान किस हद तक गिर सकता है, चिंतन-मनन करिए। प्रेम करिए। आप अपने ईमानदारी, जज़्बे और इच्छा शक्ति से आगे बढ़ सकते हैं। बस एक बात का ध्यान रहे की हर सपने की एक कीमत होती है और इसे बस केवल अपने तक सीमित रखिए, किसी को मत बताइए कि आपने कितनी रातें बिना सोए हुए काटी हैं, या भूख ने आपको कितना बेचैन किया है। बस ये बात ध्यान रहे कि भले आपसे दुनिया मुकर जाये, हो सकता है आपको कोई निर्माता न मिले। परिस्थितियाँ विषम होती चली जायें फिर भी आपको कहानी कहनी है, अपने मन का सिनेमा बनाना है, तो आप ज़रूर बना लेंगे। बस ये कभी मत भूलियेगा कि ये रास्ता आपने चुना है। पीछे नहीं मुड़ना है।

DB: आप किन फिल्मकारों या लेखकों से सबसे ज़्यादा प्रेरित हुए हैं?

DH: ऐसे तो कई हैं, लेकिन पोलैंड के फ़िल्मकार क्रिज़तोफ़ कीस्लोव्स्की बहुत पसंद हैं। किम की-डुक की फ़िल्में अच्छी लगती थीं। ईरानी फ़िल्मकार अब्बास किरोस्तामी और माजिद मजीदी से भी बहुत कुछ सीखा समझा जा सकता है। वैसे भारतीय फ़िल्मकारों में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक ने बहुत प्रभावित किया है। नए फ़िल्मकारों में सुजीत सरकार और विशाल भारद्वाज का सिनेमा भी बहुत पसंद आता है।

DB: इलहाम को लेकर दर्शकों और समीक्षकों से कैसी प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं?

DH: सच कहूँ तो, ‘इलहाम’ को हर जगह से ज़बरदस्त प्यार मिला है। फ़िल्म को जहाँ भी दिखाया गया, चाहे वो देश हो या विदेश, स्कूल हों या कॉलेज, हर किसी को पसंद आई। पर मैं हमेशा कहता हूँ कि किसी भी आर्ट में परफेक्शन जैसी कोई चीज़ नहीं होती। हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाता है, और यही कमी हमें अपनी अगली कहानी को और भी शानदार बनाने का हौसला देती है।

DB: आने वाले समय में आप किन नए प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं?

DH: फ़िलहाल एक-दो फ़िल्मे और एक वेब सीरीज़ पर काम चल रहा है। आप जानते हैं, अभी उनके बारे में ज़्यादा डिस्क्लोज करना सही नहीं होगा। टाइम आने पर सब पता चलेगा। बस इतना कह सकता हूँ कि स्क्रिप्ट्स बहुत स्ट्रॉन्ग हैं, और मैं उन्हें स्क्रीन पर लाने के लिए बहुत एक्साइटेड हूँ।

DB: आपकी दृष्टि में आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि अब तक क्या रही है, और आने वाले वर्षों में आप क्या हासिल करना चाहते हैं?

DH: जो करना चाहता था वो कर पा रहा हूँ। यही सोचकर मुंबई आया था। मैंने कभी अपने ऊपर प्रेशर हावी नहीं होने दिया। जो कहानियाँ लिखी थीं, उन्हें ही स्क्रिप्ट में उतारा और उन्हीं पर फ़िल्में बनाईं। आने वाले सालों में भी मेरा गोल बस यही है कि मैं अपनी कहानियों को अपने तरीक़े से कहता रहूँ। और इस सब के बीच बस इतना सुकून चाहिए कि जब मन करे, मैं अपने पसंद के लेखकों को पढ़ सकूँ।

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