आज भी भगत सिंह को लेकर गांधी जी पर उठते हैं ये सवाल

गांधी जी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी, वे कोशिश करते तो भारत और पाकिस्तान का बंटवारा भी रोक सकते थे। ऐसे ढेरों आरोप हैं, जो अक्सर गांधीजी के ऊपर उछाले जाते रहे हैं। आज गांधी जयंती है। यानी बापू का जन्मदिन। हमने सोचा क्यों न गांधी पर लगे आरोपों की सच्चाई जांची जाए। तो चलिए शुरू करते हैं…

  1. पटेल की जगह नेहरू को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए पूरा जोर

29 अप्रैल 1946 को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में नया अध्यक्ष चुना जाना था। ये चुनाव इसलिए सबसे अहम था क्योंकि भारत की आने वाली अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री कांग्रेस अध्यक्ष को ही बनाया जाना तय किया गया था।

कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे सभी प्रमुख नेता मौजूद थे। अध्यक्ष पद के लिए 15 में से 12 प्रांतीय कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया। गांधी की इच्छा के मुताबिक अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के नाम का भी प्रस्ताव रखा गया।

कांग्रेस अध्यक्ष के लिए मैदान में दो नाम थे- पटेल और नेहरू। नेहरू तभी निर्विरोध अध्यक्ष चुने जा सकते थे, जब पटेल अपना नाम वापस लेते। कृपलानी ने पटेल के नाम वापसी की अर्जी लिखकर दस्तखत के लिए पटेल की तरफ बढ़ा दी। पटेल ने कागज पर दस्तखत नहीं किए और अर्जी गांधी की तरफ बढ़ा दी।

गांधी ने उसे नेहरू की तरफ बढ़ाते कहा, ‘जवाहर, वर्किंग कमेटी के अलावा किसी भी प्रांतीय कमेटी ने तुम्हारा नाम नहीं सुझाया है। तुम्हारा क्या कहना है?’ मगर नेहरू यहां चुप रहे।

गांधी ने वह कागज पटेल की तरफ वापस बढ़ाया और इस बार पटेल ने अपनी नाम वापसी पर दस्तखत कर दिए। फौरन ही कृपलानी ने नेहरू के निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की घोषणा कर दी। (संदर्भः कृपलानी की किताब Gandhi-His Life and thoughts)

उस समय के बड़े पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब ‘India: From Curzon to Nehru and After’ में लिखा, ‘राजेंद्र प्रसाद ने मुझसे कहा कि गांधी जी ने ग्लैमरस नेहरू के लिए अपने विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया।’

गांधी ने एक इंटरव्यू में कहा था- जवाहर नंबर दो स्थिति में आने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे। दोनों सरकारी गाड़ी को खींचने के लिए दो बैल होंगे। इनमें अंतराष्ट्रीय मामलों के लिए नेहरू और राष्ट्र के काम के लिए पटेल होंगे।

गांधी ने एक और मौके पर कहा था कि जिस समय हुकूमत अंग्रेजों के हाथों से ली जा रही हो, उस समय भी कोई दूसरा आदमी नेहरू की जगह नहीं ले सकता। वे हैरो के विद्यार्थी, कैंब्रिज के स्नातक और लंदन के बैरिस्टर होने के नाते अंग्रेजों को बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं।

पटेल के उग्र तेवर और बढ़ती उम्र भी गांधी के इस रुख की वजह हो सकती है। पटेल गांधी से केवल 6 साल छोटे थे, जबकि नेहरू पटेल से करीब 15 साल छोटे थे। 1947 में जब देश आजाद हुआ तो सरदार पटेल 71 साल के थे और नेहरू सिर्फ 56 साल के।

  1. दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर सुभाष चंद्र बोस की खिलाफत

1938 में हुए कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने अपनी ऊर्जा से सभी को हैरान कर दिया। हालांकि तब तक गांधी के साथ उनके मतभेद सामने आने लगे थे।

सुभाष चंद्र बोस ने पत्नी एमिलि शेंकल को पत्र लिखा (नेताजी संपूर्ण वांग्मय खंड 7, 04 अप्रैल 1939), “ये संदेहजनक है कि मैं अगले साल फिर से पार्टी का अध्यक्ष बन पाऊं। कुछ लोग गांधी जी पर दबाव डाल रहे हैं कि इस बार कोई मुसलमान अध्यक्ष बनना चाहिए, यही गांधी जी भी चाहते हैं। किंतु मेरी अभी तक उनसे कोई बात नहीं हुई है।”

इसी माहौल में 29 जनवरी 1939 को त्रिपुरी में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव हुए। इस पद के लिए महात्मा गांधी की पहली पसंद अबुल कलाम आजाद माने जा रहे थे। कलाम के मना करने के बाद गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया को उम्मीदवार बनाया। सुभाष को 1580 वोट मिले और सीतारमैया को 1377 वोट। गांधी जी और पटेल के पूरा जोर लगाने के बाद भी वो जीत नहीं सके।

गांधीजी ने सार्वजनिक तौर पर इसे अपनी हार माना। इसी समय गांधी जी कांग्रेस वर्किंग कमेटी से अलग हो गए। इसके बाद पटेल और अन्य कई सदस्यों ने भी कार्य समिति से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद सुभाष के लिए अपने पद पर बने रहना बेहद मुश्किल हो गया।

अप्रैल 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति की कलकत्ता बैठक में सुभाष ने इस्तीफा दे दिया। उनकी जगह राजेंद्र प्रसाद ने ले ली। बोस ने कांग्रेस के अंदर ही अपनी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक बनाई।

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के रिसर्च जर्नल ‘इतिहास’ में जेपी मिश्रा ने लिखा, बोस के फॉरवर्ड ब्लॉक बनाने के बाद कांग्रेस हाईकमान राजनीतिक तौर पर बोस के प्रभाव को पूरी तरह खत्म करने का मन बना चुका था। हालांकि सुभाष अभी बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष थे, लेकिन जुलाई 1939 में उस पद से भी हटाकर उन्हें तीन बरस के लिए किसी अन्य पद के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया गया।

  1. गांधी-इरविन समझौता: क्या वाकई महात्मा क्रांतिकारी भगत सिंह को बचा सकते थे?

8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह ने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली में केंद्रीय असेंबली में दो बम फेंके और मौके से ही गिफ्तारी भी दी। भगत सिंह का मकसद किसी को मारना नहीं था। पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट के विरोध के साथ आजादी की आवाज दुनिया तक पहुंचाना था।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 7 अक्टूबर 1930 को फांसी की सजा सुनाई गई और तय तारीख से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई।

फांसी से 17 दिन पहले यानी 5 मार्च 1931 को वायसराय लॉर्ड इरविन और महात्मा गांधी के बीच एक समझौता हुआ, जिसे गांधी इरविन पैक्ट के नाम से जानते हैं।

समझौते की प्रमुख शर्तों में हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाना शामिल था। इसके अलावा भारतीय को समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार, आंदोलन के दौरान इस्तीफा देने वालों की बहाली, आंदोलन के दौरान जब्त संपत्ति वापस किए जाने जैसी बातें शामिल थीं। इसके बदले में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जाने को राजी हो गई।
इतिहासकार एजी नूरानी अपनी किताब The Trial of Bhagat Singh के 14वें चैप्टर Gandhi’s Truth में कहते हैं कि भगत सिंह का जीवन बचाने में गांधी ने आधे-अधूरे प्रयास किए। भगत सिंह की मौत की सजा को कम करके उम्र कैद में बदलने के लिए उन्होंने वायसराय से जोरदार अपील नहीं की थी।

इतिहासकार और गांधी पर कई किताबें लिखने वाले अनिल नौरिया का कहना है कि गांधी ने भगत सिंह की फांसी को कम कराने के लिए तेज बहादुर सप्रू, एमआर जयकर औऱ श्रीनिवास शास्त्री को वायसराय के पास भेजा था।

अप्रैल 1930 से अप्रैल 1933 के बीच ब्रिटिश सरकार में गृह सचिव रहे हर्बर्ट विलियम इमर्सन ने अपने संस्मरण में लिखा है कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए गांधी के प्रयास ईमानदार थे और उन्हें कामचलाऊ कहना शांति के दूत का अपमान है।

गांधी जी के मुताबिक, ‘भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता गलत और असफल है। ईश्वर को साक्षी रखकर मैं ये सत्य जाहिर करना चाहता हूं कि हिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज नहीं मिल सकता। सिर्फ मुश्किलें मिल सकती हैं।’

  1. बंटवारा रोकने के लिए जिन्ना को भी PM बनाने के लिए तैयार थे बापू

तारीख: 3 जून, 1947, समय: शाम 4 बजे। गुलाम भारत के अंतिम गवर्नर जनरल और वायसराय लुइस माउंटबेटन रेडियो पर आते हैं। वो भारत की आजादी का दिन यानी 15 अगस्त 1947 के साथ देश के बंटवारे का भी ऐलान करते हैं। इसे माउंटबेटन प्लान कहा गया।

इसके साथ ही शुरु हुआ दुनिया का सबसे बड़ा पलायन। अगस्त 1947 से लेकर मार्च 1948 के बीच 45 लाख हिंदू और सिखों को पाकिस्तान छोड़ना पड़ा। इसी तरह सरहद से इस पार से करीब 60 लाख मुस्लिम भारत छोड़कर उस तरफ चले गए। कुल मिलाकर एक करोड़ से ज्यादा लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े। इस दौरान हुए दंगों और भुखमरी से 10 लाख लोग मारे गए।

आज आजादी के 75 साल बाद भी यह सवाल पूछा जाता है कि यह भयावह बंटवारा हुआ क्यों? क्या महात्मा गांधी इसके लिए जिम्मेदार थे? यों तो भारत का बंटवारा 14 अगस्त 1947 को हुआ था, लेकिन इसकी शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी। 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश किंग ने भारत के बंटवारे की योजना को मंजूरी दे दी थी, जब उन्होंने इंडियन इंडिपेंस एक्ट पर हस्ताक्षर किए थे।

सच तो यह था कि इस समय तक केवल दो ही नेता थे जो भारत के बंटवारे के खिलाफ थे। पहले थे- महात्मा गांधी और दूसरे खान गफ्फार खान। जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल के साथ बाकी कांग्रेसी नेताओं ने 3 जून को ही बंटवारे के माउंटबेटन के प्लान को स्वीकार कर लिया था।
महात्मा गांधी तो 1 अप्रैल 1947 को बेहद परेशान होकर माउंटबेटन से मिलने पहुंचे थे। उनका मकसद था कि किसी भी तरह भारत के बंटवारे को रोका दिया जाए। इसके लिए उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने का ऑफर दे दिया था।

माउंटमबेटन पेपर्स के नाम से पब्लिश हुई वायसराय की डायरीज के मुताबिक गांधी ने नए वायसराय से कहा- जिन्ना से फौरन मुस्लिम लीग के साथियों के साथ केंद्रीय अंतरिम सरकार बनाने के लिए कहा जाना चाहिए।’

इस पर माउंटबेटन ने गांधी से कहा कि वह इस मामले में जवाहरलाल नेहरू से बात करना चाहते हैं। जब नेहरू वायसराय से मिले, तो उन्होंने भी महात्मा गांधी की बात दोहराई। नेहरू बोले- उन्हें इस बात से कोई दिक्कत नहीं, लेकिन जिन्ना पहले ही यह ऑफर खारिज कर चुके हैं।

इसके बाद जिन्ना फिर से भारत के प्रधानमंत्री की पोस्ट ऑफर की गई, तो उन्होंने इसे फिर खारिज कर दिया। जिन्ना बोले- आजाद भारत को लेकर मिस्टर गांधी के जो विचार हैं, वो हमसे बुनियादी तौर पर अलग हैं।

ब्रिटिश सरकार के वफादार रहे शिक्षाविद सैयद अहमद खान और भाषाविद राजा शिव प्रसाद ने 1876 में सबसे पहले दो राष्ट्र की बात कही थी। उन्होंने बनारस (अब वाराणसी) में एक कार्यक्रम में कहा था कि हिंदूं और मुसलमानों की जीवनशैली एक दूसरे बिल्कुल अलग है, इसलिए ये कभी भी एक राष्ट्र नहीं बन सकते। यही सिद्धांत आगे चलकर भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की वजह बना।

साल 1915 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा का गठन किया गया। इसे मदनमोहन मालवीय ने बनाया था। विनायक दामोदर सावरकर औरर लाला लाजपत राय भी इसके संस्थापकों में शामिल थे।

बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक 1937 में अहमदाबाद में सावरकर ने कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। दोनों का हक इस भूमि पर एक बराबर नहीं है।

  1. पाकिस्तान को 55 करोड़ देने के पक्ष में थे गांधी

बात 20 अगस्त 1947 की है। पांच दिन पहले ही अस्तित्व में आई पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर कब्जे के लिए ऑपरेशन गुलमर्ग के नाम से साजिश रचना शुरू कर दी। योजना के मुताबिक 22 अक्टूबर को हथियारबंद कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद पर हमला कर दिया। 26 अक्टूबर तक हालात ऐसे हो गए कि राजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। फौरन ही एयरलिफ्ट के जरिए कश्मीर पहुंची भारतीय सेना ने कबाइलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को खदेड़ना शुरू कर दिया।

इधर, बंटवारे के दौरान यह तय हुआ था कि बड़ा देश होने के नाते भारत पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपए देगा। भारत ने पाकिस्तान को 20 करोड़ की पहली किश्त दे दी थी, इस दौरान पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। भारत में सरकार से लेकर सेना को पता था कि अगर बचे 55 करोड़ रुपए पाकिस्तान को दिए गए तो उसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ युद्ध में होगा। नतीजतन भारत सरकार ने पाकिस्तान को दी जाने वाली दूसरी किश्त रोक दी।

तब लॉर्ड माउंटबेटन भारत के गवर्नर जनरल थे। उनका मानना था कि भारत को पाकिस्तान को उसके हिस्से का पैसा देना चाहिए, क्योंकि दोनों देशों के बीच यह समझौता हुआ है। महात्मा गांधी का भी मानना था भारत को समझौते के मुताबिक पाकिस्तान के हिस्से के पैसे देने चाहिए। यह उसकी नैतिक जिम्मेदारी है।

कई लोगों का कहना है कि महात्मा गांधी ने इसके लिए अनशन किया। हालांकि, अनशन की बात का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता है। 13 जनवरी 1948 को गांधी ने प्रार्थना सभा में दोनों धर्मों के लोगों से बातचीत की, लेकिन उसमें 55 करोड़ रुपए का कोई जिक्र नहीं किया। 15 अगस्त को एक पत्रकार से बातचीत में भी उन्होंने 55 करोड़ का जिक्र नहीं किया। भारत सरकार की प्रेस विज्ञप्तियों में गांधी की ओर से पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने की मांग का कोई जिक्र नहीं है।

1953 में पाकिस्तान ने भारत से फिर से वो पैसे देने की मांग की, लेकिन तब कश्मीर के प्रधानमंत्री रहे बख्शी गुलाम मोहम्मद ने जवाब दिया कि पाकिस्तान के पास भारत की करीब 600 करोड़ की संपत्ति है, वो पहले उसका भुगतान करे। पंजाब राज्य सरकार ने कहा कि पाकिस्तान को जो पानी मिलता है उसका करीब 100 करोड़ का बिल पाकिस्तान पर बकाया है, अगर उसे पाकिस्तान चुकता करेगा तो भारत पैसे देगा। भारत ने पाकिस्तान की संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनने पर लगी साढ़े चार लाख की फीस भी अदा की थी। इन सभी वजह से दोनों देशों के बीच फिर पैसे का कोई लेन देन नहीं हुआ।

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