इंटरनेट के जमाने में हम प्रतिदिन कई तस्वीरें देखते हैं और आगे बढ़ जाते हैं लेकिन कुछ तस्वीरें ऐसी होती हैं जो आगे बढ़ने नहीं देतीं. ऐसा ही मामला सामने आया है जहा राजधानी से 65 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले की ये एक ऐसी ही तस्वीर है.
यूपी : हापुड़ जिले में मोहम्मद क़ासिम और 60 साल के एक बुजुर्ग समीउद्दीन को भीड़ ने गाय चुरा कर काटने के नाम पर मारा. अस्पताल पहुंचने से पहले मोहम्मद कासिम की मौत हो गई जबकि समीउद्दीन गंभीर रूप से जख्मी हैं. पुलिस एफ़आईआर में इसे ‘रोड रेज’ का मामला बताया गया है.
जानिए क्या है पूरा मामला
अब बात इस दर्दनाक तस्वीर की. खून से लथपथ जिस इंसान को चार लोग हाथ-पैर पकड़ कर लटकाते ले जा रहे हैं, वो मोहम्मद कासिम ही है. पुलिस की मौजूदगी में घायल मोहम्मद कासिम को जिस तरीके से ले जाया जा रहा है वो हमारे सिस्टम के मर चुके होने का जीता-जागता सबूत है. इस तस्वीर को गौर से देखिए तो मन बैठने लगता है. दिमाग गुस्से से भनभनाने लगता है.
ऐसा लगता है कि अगर व्यवस्था में थोड़ी जान बची होती तो उससे चीख-चीख के सवाल करते. पूछते कि क्या मानवाधिकार का नाम सुना है?
क्या अब हम इस लायक भी नहीं बचे हैं
आम मानवीय व्यवहारों का पालन कर सकें? क्या हम किसी घायल इंसान को अस्पताल ऐसे पहुंचाते हैं? क्या हम किसी मृत शरीर को श्मशान ऐसे ले जाते हैं?
लेकिन ये सवाल पूछें किससे? पुलिस से पूछ नहीं सकते क्योंकि बिना कोई जांच-पड़ताल किए उसने इस मामले को ‘रोड रेज’ बता दिया. वो खुद इस फोटो की एक अहम किरदार है. इस दर्दनाक तस्वीर में सबसे आगे पुलिस के ही लोग हैं. उनके पीछे ही मानवता के हाथ-पैर पकड़कर घसीटा जा रहा है. इस पुलिस वाले को तस्वीर की ताकत का भी अंदाजा है और इसीलिए वो तस्वीर लेने वाले को रोक भी रहा है.
इन सवालों की परवाह भी नहीं है शायद.
रही बात बड़े बाबुओं की, नेताओं की तो वो फिलहाल योगा करने-करवाने और फिटनेस चैलेंज लेने-देने में व्यस्त हैं. उन्हें इन सवालों की परवाह भी नहीं है शायद. तस्वीर उन तक पहुंचेगी तो कोई बयान दे देंगे. थोड़ा दुख जाहिर कर देंगे. ये भी हो सकता है कि कुछ न कहें, चुप रहें.
ऐसी किसी तस्वीर के आने पर केवल पुलिस को दोषी बता देना, ठहरा देना सबसे आसान है.
कहने का मतलब है कि पुलिस तो दोषी है ही. वो दिख भी रहा है. पर असल दोषी वो व्यवस्था है जो गरीब या कमजोर को जानवर के बराबर मानता है. समझता है. व्यवस्था का कसूर इसलिए भी है क्योंकि उसने जमीन पर काम करने वाले अधिकारियों को मानवाधिकार के प्रति सजग नहीं बनाया.
वैसे ये पहली तस्वीर नहीं है.
इससे मिलती-जुलती एक तस्वीर 2010 में आई थी. जिसमें एक नक्सली के शव को सुरक्षाकर्मी बांस बांधकर ले जाते दिख रहे थे. तब शायद ऐसी तस्वीर पहली बार आई थी. खूब हल्ला मचा था. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सीधे गृहमंत्रालय को नोटिस जारी किया था.
लेकिन फिलहाल जो तस्वीर हापुड़ से आई है उसे लेकर कोई खास हो-हल्ला नहीं मच रहा है. मानवाधिकार के लिए काम करने वाली संस्थाएं भी चुप हैं. पुलिस व्यवस्था भी शांत है.
हां, सोशल मीडिया पर कुछ लोग इसे लेकर अपनी छाती पीट रहे हैं लेकिन जिनकी असल जवाबदेही है वो फिलहाल विश्व में योग की अलख जगाने में व्यस्त हैं. उनकी व्यस्तता खत्म हो तो कुछ सवाल-जवाब हो.