हमीरपुर. । उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में पर्यावरण प्रदूषण से प्रकृति में हो रहे परिवर्तन की परिणीति गिद्ध, चील के बाद अब ‘कौआ मामा’ को भी लीलती जा रही है। प्यास बुझाने के लिये कोए द्वारा चोंच से कंकड़ डालकर घड़े का पानी ऊपर लाने की मेहनत और लगन की सबसे बड़ी प्रेरक बोध कथा भविष्य में कभी शायद बच्चों के समझ में न आये तब बच्चों के मन में यह सवाल उठेगा कौए होते कैसे हैं। मेहमानों के आगमन की सूचना देने वाले और पितरों तक श्राद्ध को पहुंचाने वाले कौए अब गुम होते जा रहे हैं। अब घर की मुंडेर पर कौए की सगुन भरी कांव-कांव की आवाज सुनाई नहीं देती।
पर्यावरण संरक्षण एवं प्रक्रति को संतुलित रखने में कौए की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वन विभाग के पास कम होते जा रहे कौवों के बचाव के लिये कोई उपाय नहीं हैं। वन विभाग भी कौवों की संख्या से अनिभिज्ञ है। चील, गिद्ध, गौरैया, सारस के साथ अब कौए भी विलुप्त होते जा रहे हैं। पर्यावरण में प्रदूषण का असर हर किसी पर पड़ा है। अब कौवे भी उनके अपवाद नहीं हैं। मेहमानों के आगमन की सूचना देने वाले कौए की ‘कांव-कांव’ और गौरैया की चेहक गुम से हो गयी है। शहरों एवं गांवों में ही इनका असर दिखाई दे रहा है। घर की माताऐं एवं बहिनें शगुन मानकर कौवा मामा कहकर घर में बुलातीं तो कभी उसकी बदलती हुई दिशा में ‘कांव कांव’ करने को अपशकुन मानते हुए उड़जा कहके बला टालतीं थीं तो कभी घर की बहुऐं कौए के जरिये मायके से बाबुल, भाई के आने की संदेशा पातीं थीं। एक दशक पहले कौए आकर पुर्खों को दिये जाने वाला भोजन चुग जाते थे। ऐसी मान्यता है कि कौए ही पित्रों तक श्राद्ध पहुंचाते हैं।
इस बारे में महेश त्रिपाठी का कहना है कि कौवा किसानों का मित्र है। वह शाकाहारी के साथ मासाहारी भी है। रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं के प्रचलन, शहरीकरण के साथ टेलीफोन टावर से निकलने वालीं तरंगें पक्षियों को लील रहीं हैं। यही कारण है कि कौए, गौरैया व अन्य पक्षियों की संख्या भी दिन व दिन घटती जा रही है। पेड़ कट रहे हैं जिससे इनके रहने के स्थान कम हो रहे हैं। गांव के बाहर तथा सड़क के किनारे पड़े मरे जानवर सड़ते रहते हैं जिनसे उठने वाली दुर्गंध दूर दूर तक जाती हैं और उनसे संक्रामक रोग फैलने का खतरा रहता है। इन मरे हुए पशुओं को खाने वाले गीद्ध, चील और कौए दूर तक नजर नहीं आते हैं। शहर व गांव की सफाई के लिये गिद्ध, चील और कौए ही गिने जाते थे।
कहा कि, एक दशक पहले बच्चे कौवा मामा कहकर चहकते थे लेकिन आज यह आवाज सुनाई नहीं देती। ‘झूंठ बोले कौवा काटे, काले कौए से डरियो’ जैसे गाने गुनगुनाने वाले बच्चे कुछ वर्ष बाद कौवा मामा को देखने के लिये तरस जायेंगे। कौवा हकनी की कहानी तो लोग भूल ही गये। इधर पर्यावरण के लिये काम कर रहे जलीस खान ने बताया कि मौसम में आये परिवर्तन के कारण कौवे प्रजाति के अस्तित्व पर संकट पड़ा है। यह कौवे प्रकृति के लिये बड़े ही वरदान साबित थे मगर इनकी संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है।