योगेश श्रीवास्तव
\
लखनऊ। समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने बीते रविवार को अखिलेश यादव के साथ मंच साझा करके एक बार फिर शिवपाल सिंह यादव के उन दावों की हवा निकाल दी है, जिसमें चे नेता जी आर्शीवाद साथ होने की बात कर रहे थे। सेक्युलर मोर्चे के गठन के साथ ही शिवपाल यादव ने मोर्चे के झंडे बैनर और होर्डिग्स पर मुलायम की तस्वीरे लगाते हुए उनसे मोर्चे का संरक्षक बनने का अनुरोध किया था और यह भी कहा था कि नेता जी उन्हीं के मोर्चे से लोकसभा चुनाव लड़ेगे।
सपा से नाराज होकर शिवपाल ने कुछ दिन पहले ही समाजवादी सेक्युलर मोर्चा का गठन किया था। इसके बाद से वह लगातार दावा कर रहे थे कि उन्हें नेताजी सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव का आशीर्वाद प्राप्त है। रविवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर सपा की साइकिल रैली के समापन के कार्यक्रम में जब मुलायम पहुंच गये और वहां से अपना संबोधन भी दिया। इससे अब यह स्पष्ट हो गया कि मुलायम का आशीर्वाद अपने बेटे अखिलेश यादव के साथ है। न कि भाई शिवपाल के साथ। मुलायम का अखिलेश के साथ मंच साझा करने के बाद से ही उत्तर प्रदेश की सियासत में चर्चाओं का दौर शुरू हो गया।
राजनीतिक समीक्षक दिन भर इसके अलग-अलग मायने निकालते रहे। राजधानी में यह चर्चा आम रही कि मुलायम ने अपने बेटे का साथ देने का फैसला कर लिया है और उन्होंने अब शिवपाल से दूरियां बना ली हैं। हालांकि शिवपाल के सेक्युलर मोर्चा को अभी भी विश्वास है कि उन्हें मुलायम का आशीर्वाद मिलेगा। मोर्चा के प्रवक्ता अभिषेक सिंह का कहना है कि नेताजी समाजवाद के चलते फि रते विश्वविद्यालय हैं। वह कहीं भी आएं-जाएं लेकिन उनका आशीर्वाद सदा मोर्चा के साथ है।
राजनीतिक समीक्षक मुलायम के रुख का असर सपा, बसपा, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों के प्रस्तावित महागठबंधन पर भी देख रहे हैं। वैसे गठबंधन का सारा दारोमदार बसपा सुप्रीमो मायावती के रुख पर निर्भर है। हाल ही में मायावती ने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जिस तरह से कांग्रेस को किनारे किया है और उसके पहले लखनऊ में पत्रकार वार्ता आयोजित कर गठबंधन को लेकर उन्होंने जो बयान दिया था उससे सियासी हल्के में यही संदेश गया कि मायावती गठबंधन अपनी शर्तों पर चाहती हैं।
अब सपा में दो फ ाड़ हो जाने से मायावती इस बात को लेकर और सचेत होंगी कि शिवपाल द्वारा अलग मोर्चा बना लेने और खुलकर सपा के खिलाफ आने से सपा के सियासी समीकरणों पर कुछ न कुछ असर अवश्य पड़ेगा। ऐसे में गठबंधन को लेकर बसपा सुप्रीमो एक बार फि र समीक्षा कर सकती हैं।
सियासी समीक्षक यह भी मान कर चलते हैं कि सपा और बसपा दोनों उत्तर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल हैं और दोनों दलों के मुखिया महात्वाकांक्षी भी हैं। ऐसे में मायावती और अखिलेश 2019 के लोकसभा चुनाव से ज्यादा 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर चिंतित बताये जा रहे हैं क्योंकि उस समय दोनों ही प्रदेश के मुख्यमंत्री के दावेदार होंगे।