कवि वीरेन डंगवाल की जयंती : ‘आएंगे, उजले दिन ज़रुर आएंगे, पर डरो नहीं चूहे आखिर चूहे ही हैं…’

लखनऊ । ….आएंगे, उजले दिन ज़रूर आएंगे… आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़.. है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती… आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार… संशय-विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती… होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार… तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएंगे। तहख़ानों से निकले मोटे-मोटे चूहे… जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे हैं… कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें… चीं-चीं, चिक्-चिक् की धूम मचाते घूम रहे… पर डरो नहीं, चूहे आख़िर चूहे ही हैं… जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे…।

कवि वीरेन डंगवाल के 78 वें जन्मदिन पर जन संस्कृति मंच लखनऊ ने ‘वीरेन की याद में ‘ कार्यक्रम आयोजित किया। मौसम को देखते हुए यह न लाइन हुआ। इस मौके पर सुचित माथुर ने वीरेन डंगवाल के काव्य वैविध्य को उकेरती तीन कविताएं सुनाईं। ये थीं…. इतने भले नहीं बन जाना साथी, तोप और हमारा समाज।

युवा आलोचक रोहित यादव ने ‘वीरेन डंगवाल की कविताओं में समकालीन राजनीतिक यथार्थ की चेतना’ पर अपनी बात रखी। उन्होंने भारतीय राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ पर कवि की दृष्टि को रेखांकित किया और दिखाया कि कैसे ‘डोमाजी उस्ताद’ जो मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का एक पात्र है जो शहर में कुख्यात हत्यारा के तौर पर प्रसिद्ध है। आगे चलकर वह विधानसभा में जाकर माननीय हो गया।

वीरेन इसी का उल्लेख अपनी कविता ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ में बखूबी करते हैं।
रोहित यादव का कहना था कि संसद भवन में सांसद जनता के हितों पर बहस न करके सिर्फ समय काटते हैं और हंगामा करते हैं। इस जरूरी बात को वीरेन नजरअंदाज नहीं करते और उन पर कटाक्ष करते हैं और दिखाते हैं कि कैसे संविधान के अनुच्छेदों का सहारा लेकर संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है।

बड़ी-बड़ी कंपनियां और पूंजीपति चाहते हैं कि उनके पास काम कर रहे लोग मशीन हो जायें और सिर्फ काम ही करें, वीरेन बहुत पहले ही इसको देख लिया था और ‘हाथी’ जैसी कविता में इसी को सामने ले आते हैं।

रोहित यादव ने वीरेन की अनेक कविताओं को उद्धृत करते हुए कहा कि वे ‘रामसिंह’ कविता में राष्ट्रवाद के नाम पर युवकों से असली मुद्दे से भटकाने वाली बातों का पर्दाफाश करते हैं। वे जनता से अपील करते हैं कि ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ और नेताओं को एक सलाह भी देते हैं कि ‘इतने चालू मत हो जाना’। ‘तोप’ शक्ति का एक प्रतीक है उसी के माध्यम से सत्ता के नशे में चूर लोगों को नसीहत देते हैं कि ‘तोप का मुंह ही एक दिन बंद हो जाता है’ इसलिए तुम्हें भी खुद पर इतराना नहीं चाहिए। कवि को विश्वास है कि ‘उजले दिन जरूर आयेंगे’। उजले दिन लाने वाले कहीं और से नहीं आयेंगे बल्कि वह भी ‘इन्ही सड़कों से चलकर आयेंगे, जिन पर चलकर आततायी’ आए हैं।

कार्यक्रम के दूसरे हिस्से में स्थानीय कवियों ने अपनी कविताएं सुनाईं। विमल किशोर ‘जिंदा रहे उम्मीद ‘ में कहती हैं ‘जिनकी जिंदगी तबाह और बर्बाद हो जाती है/ या कर दी जाती है/ उनके पास अपना दर्द होता है/ इसी से मिलकर बनती है आवाज /यह शोर नहीं करती है/ चोट करती है’। उर्दू शायरा तस्वीर नक़वी अपनी नज़्म में कहती हैं ‘ग़ुन्चे ने पहले धूप से शबनम को जो देखा /यूं ज़िंदगी तुझे भी मगन देखते रहे!!/अब वक्त की तलवार हैं और हसरतें दिल की/इस जंगे बे पनाह में अमन देखते रहे!!’
फरजाना महदी ने अपनी नज़्म में…सत्ता के संरक्षण में ही धर्म का नंगा नाच है होता/सत्ता इनके हाथ से छीनों तब सच्ची आज़ादी हो’। इस मौके पर शैलेश पंडित ने भी अपनी दो छोटी कविताओं का पाठ किया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि अशोक श्रीवास्तव ने की। इस मौके पर उन्होंने अपनी ताज़ा कविता ‘कतार’ सुनाई। वे कहते हैं – ‘घड़ी घड़ी मुनादी हो रही है /कि कतार में हो तो सुरक्षित हो…/कतार की रखवाली बूटों के हवाले है…कतार से बाहर आते ही पकड़ लिए जाओगे /या एक गोली आएगी तुम्हारी तरफ/ लंबी होती जा रही है कतार’

कार्यक्रम का संचालन जसम लखनऊ के सचिव फरजाना महदी ने किया। कार्यक्रम में रोहिणी जान, राकेश कुमार सैनी, शांतम निधि, आशीष कुमार भारती, अवन्तिका राय, कौशल किशोर आदि मौजूद थे।

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