ड्राइविंग लाइसेंस टेंडर पर बढ़ते सवाल : एक कंपनी के पीछे हटने से बढ़ी अनियमितता और भ्रष्टाचार की आशंका

उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग द्वारा जारी ड्राइविंग लाइसेंस निर्माण से जुड़ी निविदा अब एक नए विवाद में घिरती दिख रही है। पहले से ही इस टेंडर को लेकर डेटा सुरक्षा, पारदर्शिता और पात्रता से जुड़ी चिंताएँ सामने आ चुकी थीं, और अब ताज़ा घटनाक्रम ने इन आशंकाओं को और भी गहरा कर दिया है।

सूत्रों के अनुसार, टेंडर में भाग लेने वाली एक प्रमुख कंपनी ने काम शुरू करने से पहले ही निविदा से हाथ खींच लिया है, यह कहते हुए कि निविदा में जो दरें निर्धारित की गई हैं, वे व्यावहारिक रूप से इतनी कम हैं कि उन पर काम करना कंपनी के लिए घाटे का सौदा होगा। कंपनी का स्पष्ट कहना है कि इन दरों पर परियोजना को लागू करना संभव नहीं है।

कंपनी के इस कदम ने पूरे टेंडर की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। यदि एक कंपनी स्वयं यह कह रही है कि तय की गई दरें घाटे का कारण बनेंगी, तो यह स्थिति साफ़ दर्शाती है कि शेष दो कंपनियों द्वारा दिए गए मूल्य न तो टिकाऊ हैं और न ही पारदर्शी। ऐसे में यह संदेह स्वाभाविक रूप से उठता है कि बाकी दो कंपनियाँ लाभ अर्जित करने के लिए आरटीओ स्तर पर भ्रष्टाचार, घूसखोरी या अवैध प्रथाओं का सहारा ले सकती हैं।

पिछले एक दशक से उत्तर प्रदेश में ड्राइविंग लाइसेंस से संबंधित सभी निविदाएँ केवल उन्हीं कंपनियों को दी जाती रही हैं जिनके पास अपने स्वयं के निर्माण संयंत्र होते हैं। इस नीति का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना रहा है कि लाइसेंस निर्माण की प्रक्रिया पूरी तरह नियंत्रित, सुरक्षित और जवाबदेह रहे, जिससे नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा और सरकारी प्रणाली की पारदर्शिता बनी रहे।
गंभीर बात यह भी है कि इन दोनों कंपनियों के पास अपने स्वयं के निर्माण संयंत्र (manufacturing facilities) नहीं हैं।

यानी ये कंपनियाँ ड्राइविंग लाइसेंस निर्माण का कार्य आउटसोर्स करेंगी। इससे नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा के लीक होने और गलत हाथों में जाने की आशंका और बढ़ जाती है। यह व्यवस्था डेटा सुरक्षा के साथ-साथ नागरिकों की निजता के अधिकार का भी गंभीर उल्लंघन हो सकती है।

विभिन्न समाचार रिपोर्टों में यह भी उल्लेख किया गया है कि अब केवल दो ही कंपनियाँ राज्य भर में ड्राइविंग लाइसेंस बनाने का काम करेंगी। यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब यह ज्ञात हो कि न तो इनके पास अपना उत्पादन तंत्र है, न ही स्थापित डेटा सुरक्षा अवसंरचना। इसका सीधा प्रभाव प्रदेश के करोड़ों नागरिकों की संवेदनशील जानकारी की सुरक्षा पर पड़ेगा।

विशेषज्ञों का मानना है कि यदि ऐसी कंपनियों को सीधे आरटीओ कार्यालयों में अपने कर्मचारी तैनात करने की अनुमति दी जाती है, तो यह दलाल प्रथा, घूसखोरी और भ्रष्टाचार को फिर से बढ़ावा दे सकती है। वही समस्याएँ जिन्हें खत्म करने के लिए राज्य में स्मार्ट कार्ड आधारित प्रणाली लागू की गई थी।
इन सबके बावजूद, अब तक उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस मुद्दे पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। जनता और विशेषज्ञों दोनों ने बार-बार इस विषय पर अपनी चिंता जाहिर की है, लेकिन विभाग की ओर से किसी प्रकार की समीक्षा या पुनर्विचार की पहल सामने नहीं आई है।

यह पूरा मामला न केवल निविदा प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि प्रदेश में नागरिक डेटा की सुरक्षा और सरकारी सिस्टम की विश्वसनीयता पर भी गहरी छाया डालता है। अब यह देखना बाकी है कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार इन बढ़ती चिंताओं पर संज्ञान लेकर उचित कार्रवाई करती है, या फिर यह निविदा जनता की जानकारी और विश्वास दोनों को जोखिम में डाल देगी।

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