
23 मार्च भारतीय राजनीति के उन महान विचारकों में से एक की जयंती का दिन है। जिन्होंने समाजवाद को नई दिशा दी। डॉ. राम मनोहर लोहिया केवल एक स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं, बल्कि ऐसे दूरदर्शी नेता थे। जिन्होंने सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष किया। डॉ. लोहिया का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान अमूल्य था। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह गिरफ्तार किए गए। उन्हें बरेली जेल में कैद में रखा गया।
जेल की यातनाओं के बावजूद उनका हौसला नहीं टूटा। उन्होंने आज़ादी के साथ-साथ ऐसी राजनीति की नींव रखी, जो जनता के हक में खड़ी थी।डॉ. लोहिया केवल एक नाम नहीं, बल्कि एक विचारधारा हैं। अगर सही मायनों में अपनाया जाए, तो भारत को सामाजिक और आर्थिक समानता की दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है। उनकी जयंती पर सभी को उनके विचारों से प्रेरणा लेकर लोकतांत्रिक मूल्यों और समाजवादी सिद्धांतों को मजबूत करने की दिशा में काम करने का संकल्प लेना चाहिए। आज यानी 23 मार्च को उनकी 115 वीं जयंती है।
जाति और वर्गविहीन समाज की परिकल्पना –
डॉ. लोहिया का सबसे प्रसिद्ध नारा “पिछड़ा पावे सौ में साठ” था। जिसने भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की अवधारणा को मज़बूती दी। वह मानते थे कि जब तक पिछड़े वर्गों को बराबरी का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा। यही विचार आगे चलकर आरक्षण नीति और मंडल आयोग की बुनियाद बना।लोहिया जी ने 1967 में गैर-कांग्रेसी सरकारों के गठन का मार्ग प्रशस्त किया, जो भारत की राजनीतिक दिशा बदलने वाली घटना थी। उन्होंने लोकतंत्र को परिवारवाद और पूंजीवाद के चंगुल से बचाने के लिए संघर्ष किया।
आज की राजनीति में लोहिया की प्रासंगिकता –
आज जब राजनीति में अवसरवादिता और ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, तब डॉ. लोहिया के विचार पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं। उनकी सोच गरीब, किसान, मजदूर और महिला सशक्तिकरण पर आधारित थी, जो आज भी देश के विकास की कुंजी है।
जातिवाद का विरोध और गरीबों के हक के लिए संघर्ष –

डॉ. राम मनोहर लोहिया एक महान स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी नेता और विचारक थे। वे भारत में समाजवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रबल समर्थक थे और जीवन भर सामाजिक समानता की लड़ाई लड़ी।उनका जन्म 23 मार्च 1910 को अकबरपुर, फैजाबाद (अब अयोध्या), उत्तर प्रदेश में हुआ था।
उनका निधन (मृत्यु) 12 अक्टूबर 1967 को नई दिल्ली में हुआ। वह 1947 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता बन गए। 1952 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की, लेकिन बाद में अलग हो गए। उन्होंने जातिवाद, आर्थिक असमानता और सामंतवाद के खिलाफ आंदोलन किया। वह कन्नौज लोकसभा सीट से कई बार सांसद बने थे।