सुख का लालची व्यक्ति भूल गया दुसरों का दुख

पहली बात तो ये कि – बच्चे मत पैदा करो। अगर ये उम्मीद कर रहे हो कि दुनिया में आठ-सौ करोड़ लोग हैं आज – जो कि जल्दी ही हज़ार-करोड़ भी हो जाएँगे, ग्यारह-सौ करोड़ भी हो जाएँगे — इतने रहे आएँ, और इतनों को तुम सुखपूर्वक भी रख पाओ, तो वो हो नहीं सकता। प्रश्न के मूल में एक कल्पना है, एक आदर्श है। कल्पना ये है कि जितने भी जीव-जंतु, प्राणी मात्र हैं

खास तौर पर मानव हैं- वो सब धन-धान्य से परिपूर्ण सुख की स्थिति में रहें। ये कल्पना कभी साकार नहीं हो सकती। पृथ्वी के पास इतना नहीं है कि वो इतने लोगों को खिला सके। आज अगर कहीं पर भी भुखमरी है, तो वो इसलिए नहीं है कि बहुत कम उत्पादन हो रहा है, वो इसलिए है क्योंकि आदमी लालची है भोग का। वो एक तरफ़ तो भोगता है उन सब चीज़ों के माध्यम से जो उत्पादित हो रही हैं, और दूसरी तरफ़़ वो भोग-भोगकर के संतानें उत्पन्न करता है। नतीजा – हम एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जहाँ बहुत सारे लोग हों, क्योंकि भोगने में संतानोत्पत्ति निश्चित रूप से शामिल है। आपको आपके बड़े -बूढ़े आशीर्वाद भी देते हैं, तो दो बातें अक्सर कहते हैं — “दूधो नहाओ, और पूतो फलो,” और दोनों बातें भोग से संबंधित हैं, गौर से समझना।

पहली बात कहती है कि – तुम्हारे पास खाने-पीने को बहुत सारा हो, और दूसरी बात कहती है कि – तुम बहुत सारे बच्चे पैदा करो। तो तुम ले देकर के ये आशीर्वाद पा रहे हो कि तुम अपनी तादाद भी बढ़ाते जाओ, और जिनकी तादाद बढ़ रही है, वो सब और-और, और-और भोगते भी जाएँ। इस पृथ्वी के पास इतना है कहाँ?

मैं आज सुबह ऊपर बैठा था, नाश्ता कर रहा था, मैंने न जाने कितने हफ़्तों बाद गौरैया देखी। गौरैया, आम स्पैरो, जो घर-घर में होती थीं! एक-एक बच्चा जो अभी पैदा हो रहा है — मैं बच्चे की बात इसीलिए कर रहा हूँ क्योंकि हमने बात करी कि एक ग़रीब स्त्री है, उसका बच्चा है और वो ख़राब हालत में है — एक-एक बच्चा जो पैदा हो रहा है, वो हज़ार पशुओं की, पक्षिओं की, प्राणियों की, मछलियों की जान पर पैदा हो रहा है, क्योंकि आज का बच्चा वनवासी नहीं है; वो पैदा हो रहा है तो उसे बहुत भोगना होता है। उसके भोगने के लिए वो सब सामग्री कहाँ से आएगी? और जो भोग बच्चे के पैदा होने का आधार है, समझना, वही भोग बच्चे की निर्धनता का भी आधार है। हमारी जो वृत्ति हमसे संतानोत्पत्ति कराती है, हमारी उसी वृत्ति के कारण दुनिया का एक बड़ा हिस्सा अभी भी निर्धन है।

दोनों ही वृत्तियाँ किस बात की हैं?

दोनों ही वृत्तियाँ हैं व्यक्तिगत सुख की हैं- “मुझे व्यक्तिगत सुख मिलना चाहिए, दूसरों का, दुनिया का जो होता हो, होता रहे। और तुम्हें अगर व्यक्तिगत सुख मिलना ही चाहिए, तो फिर तुम क्यों चाहोगे कि किसी और का भला हो? तुम तो अपने व्यक्तिगत सुख को ही लगातार बढ़ाने की कोशिश करोगे न? उसका नतीजा? उसका नतीजा ये है कि दुनिया के क़रीब सौ लोगों के पास उतनी ही संपदा है, जितनी दुनिया के निर्धनतम कई दर्जन देशों के पास है।

दुनिया के मुट्ठी-भर लोगों के पास उतनी ही संपदा है जितनी दुनिया के निर्धनतम कई देशों के पास है। अब उन निर्धन देशों में अगर तुमको भूखे बच्चे मिलें, तो क्या इसका कारण ये है कि दुनिया में धन की कमी है? इसका कारण ये नहीं है कि दुनिया में धन की कमी है, इसका कारण ये है कि हम व्यक्तिगत सुख चाहते हैं। और व्यक्तिगत सुख कहता है, “मेरे पास धन का अंबार लगता जाए, और मेरे पास अगर धन का अंबार है तो फिर मैं ये भी चाहता हूँ कि मेरी कई संतानें हों जो उस धन को भोगें, और दूसरों के पास धन कम-से-कम होता जाए।”

पहले हम प्रतिशत में बात किया करते थे, है न? पहले हम कहते थे कि दुनिया की जो सबसे अमीर एक प्रतिशत आबादी है, उसके पास दुनिया के पचास प्रतिशत संसाधन हैं। मैं जब बच्चा होता था तो ऐसी बातें होती थीं कि दुनिया की जो एक प्रतिशत, दो प्रतिशत, सबसे अमीर आबादी है, उसके पास दुनिया के क़रीब-क़रीब आधे संसाधन हैं। तो हम कहते थे, “अरे! ये तो बड़ी हैरतअंगेज बात है, बड़ी अन्याय की बात है।” अब हम प्रतिशत में भी नहीं बात करते, अब हम संख्याओं में बात करते हैं, अब हम दर्जनों में बात करते हैं। अब हम कहते हैं कि – “दुनिया के जो सबसे अमीर बीस लोग हैं, उनके पास इतना धन है कि वो कई देशों को ख़रीद लें।” तो ग़रीबी क्यों है? ग़रीबी इसलिए नहीं है कि हमारे पास है नहीं, ग़रीबी इसलिए है क्योंकि हम लालची हैं, हमने संचय कर रखा है।

जिस वजह से ग़रीबी है, उसी वजह से भूख भी है।

अन्न का उत्पादन इतना कम नहीं है दुनिया में कि किसी को भूखा मरना पड़े, पर अन्न अगर मुफ़्त वितरित कर दिया गया तो उसके दाम कम हो जाएँगे, तो इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि बहुत लोग अन्न से वंचित रहें। तो एक तरफ़ तुम मंज़र देखते हो कि लोग भूखे हैं, हालांकि भूखों की संख्या बहुत कम हुई है पहले से, लेकिन फिर भी अभी बहुत लोग भूखे हैं। तो एक तरफ़़ तो ये दृश्य है और दूसरी तरफ़़ तुम ये देखते हो कि गोदामों में अन्न सड़ रहा है। और अभी कुछ दशकों पहले तक पश्चिम में ये हालत होती थी कि अन्न को समुंदर में बहाना पड़ता था, और अभी-भी ये हालत है कि बहुत सारा अन्न, क़रीब-क़रीब उतना ही अन्न जितना आदमियों द्वारा खाया जाता है, उतना ही अन्न जानवरों को खिलाया जाता है। बताओ क्यों? ताकि उनका माँस खाया जा सके। और जानते हो, दस-बीस किलो अन्न खिलाओ तो एक किलो माँस बनता है।

पर हमें तो व्यक्तिगत सुख चाहिए। हम कहते हैं, “मुझे तो माँस खाना है,” भले ही उस एक किलो माँस के लिए सूअर को, गाय को, बकरे को, भेड़ को दस या बीस किलो अन्न खिलाना पड़े। अब इस दस-बीस किलो अन्न में कितने बच्चों का पेट भर जाता? ना जाने कितने बच्चों का भर जाता पर — “मुझे तो एक किलो माँस चाहिए! मेरी ज़बान तो माँस के लिए मचल रही है और मैं तो व्यक्तिगत सुख देखूँगा!” जिस व्यक्तिगत सुख की हवस से तुम बच्चे पैदा करते हो, उसी व्यक्तिगत सुख की हवस के कारण बच्चे भूखे भी हैं — रिश्ता समझो। लेकिन जब बच्चा पैदा होता है, तब हम कहते हैं, “शुभ घटना हुई,” और जब बच्चा भूखा होता है तो हम कहते हैं, “बड़ा अशुभ हुआ।” किसी बच्चे का पैदा होना और किसी बच्चे का भूखा रह जाना, जब तक तुम समझोगे नहीं कि एक ही घटना है, इंसान भी दुःख में रहेगा और ये पृथ्वी बड़ी तेज़ी से नष्ट होने की तरफ़़ बढ़ती रहेगी। बहुत ज़्यादा समय वैसे भी बचा नहीं है।

अमीर हो, ग़रीब हो, वो जिस वृत्ति के कारण बच्चे पैदा किए जाता है, उसी वृत्ति के कारण तो लोग धन का और अन्न का संचय भी कर रहे हैं न। दोनों में एक ही हवस प्रधान है, क्या? व्यक्तिगत सुख! “मेरे मज़े आने चाहिए, मेरा घोसला भरना चाहिए। मैं क्यों देखूँ कि ये जो मैं बच्चा पैदा कर रहा हूँ ये दुनिया पर कितना बड़ा क़हर बनके टूटेगा?”

दुनिया को बचाना है तो कुछ और मत करो, बच्चे मत पैदा करो। लेकिन वैसा किसी आध्यात्मिक दुनिया में ही हो सकता है, क्योंकि संतानोत्पत्ति प्रकृति की बड़ी प्रबल वृत्ति है। अध्यात्म को बहुत गहरे पैठना होगा अगर आदमी को संतान पैदा करने से ऊपर उठना है। और ज़ाहिर-सी बात है कि जो आदमी इतना आध्यात्मिक हो गया कि संतान ही नहीं पैदा कर रहा, वो आदमी अब वैसा भी हो जाएगा कि उसे अगर कोई ग़रीब मिलेगा तो उसके लिए जितना कर सकता है यथाशक्ति सब कुछ करेगा।

लेकिन और समझना, ग़रीबों के लिए कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी अगर बस अगले पाँच-दस साल बच्चे ना पैदा हों; पर्यावरण भी ठीक हो जाएगा। ये जो हम रोज़ सुनते हैं, रोज़ देखते हैं कि डूम्स-डे अब निकट ही है, वो ख़तरा भी टल जाएगा, न जाने कितने अंतरराष्ट्रीय युद्ध टल जाएँगे, अर्थव्यवस्था सुधर जाएगी, आदमी को बहुत सारा विश्राम मिल जाएगा। अभी तुम अगर बार-बार कहते हो कि – “इतनी तो मुझे अर्थव्यवस्था में वृद्धि चाहिए ही चाहिए, जी.डी.पी. में वृद्धि चाहिए ही चाहिए,” तो उसका कारण भी यही है न कि तुम हर साल, हर पल इतने बच्चे पैदा कर देते हो — ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी। लेकिन ये एक बात कोई नहीं बोलता।

हम दुनिया-भर की विधियाँ आज़माने में लगे हैं, ये एक बात कोई नहीं बोलना चाहता कि — “इंसानों, तुम आठ-सौ करोड़ हो, और पृथ्वी धसी जा रही है तुम्हारे बोझ के तले। और तुम ही तुम बढ़ रहे हो, बाकी हर जीव, हर जानवर कम हो रहा है। तुम्हारे एक बच्चा पैदा होने के साथ ना जाने कितने हिरण, शेर, ख़रगोश, पक्षी मर जाते हैं। वो एक बच्चा नहीं पैदा होता, वो न जाने कितनों की मौत पैदा होती है” — ये बात कोई बोलने को ही नहीं तैयार है। ना तो दुनिया की सरकारें ये बात बोलने को तैयार हैं, ना आध्यात्मिक गुरु ये बात बोलने को तैयार हैं, ना समाजसेवक ये बात बोलने को तैयार हैं। हम बाकी सब बातें बोलने को तैयार हैं, ये बात कोई नहीं बोलना चाहता, और यही वो एक बात है जो बोले जाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

ऐसी भी क्या बेताबी है कि नन्हा-मुन्ना हाथ में चाहिए ही? ये क्या है, कौन-सी हवस है?

जब एक व्यक्ति फ़ैसला करता है कि वो बच्चा नहीं पैदा करेगा, या एक ही पैदा करेगा — चलो करना है भी तो, बड़े तुम्हारे इरादे हैं एकदम, अरमान ही अरमान हैं, तो एक कर लो भाई। क्यों झड़ी लगाते हो? – जिस दिन तुम तय करते हो कि बच्चा नहीं करोगे, या एक तक सीमित रखोगे, उस दिन तुमने इस पूरी पृथ्वी को जीवनदान दिया, न जाने कितने प्राणियों को अभयदान दिया।

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