मेरठ। पवित्र महीने रमजानुल मुबारक का इस्लाम धर्म के अंदर विशेष स्थान है। इस महीने में की जाने वाली इबादतों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रोजा है। रमजान का रोजा हर मुसलमान, बालिग, मर्द और औरत जिसमें रोजा रखने की ताकत हो, पर फर्ज है। रमजानुल मुबारक में रोजे की इबादत के बाद दूसरा अहम स्थान नमाजे तरावीह का है। रोजे की शुरूआत दुनिया के पहले इंसान हजरत आदम अलैहि सल्ल. के जमाने से ही हो गई थी। रिवायत से पता चलता है कि अयामे बीज यानी हर महीने की 13 व 14 और 15 तारीख के रोजे फर्ज थे। यहूद और नसारा भी रोजे रखते थे। यूनानियों के यहां भी रोजे का वजूद मिलता है। हिंदू और बौद्ध धर्म में भी व्रत, धर्म का एक भाग है। पारसियों के यहां भी रोजे को बेहतरीन इबादत समझा गया है। जिससे सिद्ध होता है कि दुनिया के तमाम धर्मों में रोजे की फजीलत व अहमियत पाई जाती है। हजरत आदम अलैहि से लेकर मुहम्मद सल्ल. तक हर कौम और समाज में रोजे का वजूद किसी न किसी रूप में देखने को मिलता है। इससे यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है कि इस सृष्टि की रचना करने वाले अल्लाह ने रोजे को एक बेहतरीन इबादत बनाया है। यहूद और नसारा सहरी नहीं खाते- इस्लाम धर्म में रोजा रखने के लिए सहरी खाना मसनून है और हदीस शरीफ में सहरी की बड़ी फजीलत आई है। आप सल्ल. का इरशाद है कि यहूद, नसारा और मुसलमानों में यही फर्क है कि वह सहरी नहीं खाते और मुसलमान खाते है। रोजे, सहरी के सदके में ही पूरे रमजान माह में अल्लाह की ओर से हर चीज मे बरकत पैदा कर दी जाती है।
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