
भारत की धरती पर फैली अरावली पर्वतमाला सिर्फ एक भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि अरबों वर्षों के इतिहास को समेटे हुई प्राकृतिक धरोहर है। हिमालय से भी कहीं अधिक प्राचीन मानी जाने वाली यह पर्वत श्रृंखला विज्ञान, इतिहास और पुरातत्व के कई रहस्यों को अपने भीतर समेटे हुए है। शोधकर्ता आज भी इसके भूवैज्ञानिक और सांस्कृतिक महत्व को समझने में जुटे हुए हैं।
अरावली की उत्पत्ति और भूवैज्ञानिक पहचान
अरावली पर्वतमाला का निर्माण प्रोटेरोजोइक युग में लगभग 2.5 से 3.2 अरब वर्ष पहले हुआ था। भूगर्भशास्त्र में इसे वलित पर्वत श्रेणी में रखा जाता है, जो टेक्टोनिक प्लेटों की हलचल से अस्तित्व में आई। उम्र के लिहाज से यह हिमालय से कई गुना पुरानी है और दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में गिनी जाती है।
नामकरण और सांस्कृतिक जुड़ाव
‘अरावली’ शब्द संस्कृत के “आरा” और “वली” से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है ‘चोटियों की श्रृंखला’। पुराणों और महाभारत में इसका उल्लेख ‘अर्बुदाचल’ या ‘आड़ावाला पर्वत’ के रूप में मिलता है। मान्यता है कि इसका नाम अर्बुदा देवी से जुड़ा हुआ है, जिससे इसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व और भी बढ़ जाता है।
पर्यावरण और जलवायु में भूमिका
अरावली पर्वतमाला भारत के पर्यावरणीय संतुलन में अहम भूमिका निभाती है। यह थार रेगिस्तान के विस्तार को रोकने में प्राकृतिक बाधा का काम करती है। लूनी और बनास जैसी कई नदियों का उद्गम भी यहीं से होता है। इसके अलावा, यह क्षेत्रीय जलवायु को संतुलित रखने में भी सहायक है।
भौगोलिक विस्तार और खनिज संपदा
गुजरात के पालनपुर से लेकर दिल्ली तक फैली अरावली पर्वतमाला की लंबाई लगभग 670 से 692 किलोमीटर है। इस क्षेत्र में संगमरमर, तांबा, जस्ता सहित कई महत्वपूर्ण खनिज पाए जाते हैं, जो उद्योग और निर्माण क्षेत्र के लिए बेहद उपयोगी हैं।
ऐतिहासिक और धार्मिक विरासत
प्राचीन ग्रंथों में बार-बार उल्लेख के कारण अरावली का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व भी विशेष माना जाता है। यह पर्वतमाला न सिर्फ एक प्राकृतिक संरचना है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पर्यावरणीय विरासत का अहम हिस्सा भी है।















