
हिन्दी की दुर्दशा के लिए कोई बाहरी लोग जिम्मेदार नहीं हैं, इस समस्या के मूल में हैं वो लोग जिन्होंने आज़ादी के बाद से ही हिंदी को हाशिए पर ढकेल दिया। देखो धूमिल की पंक्तियाँ हैं उससे बात समझ जाओगे उनके शब्द थे, “आज तुम्हे मैं वह शब्द बताता हूं जिसके आगे हर सच्चाई छोटी है, कि भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क सिर्फ़ रोटी है।”
तुमने हिंदी को रोटी से काट दिया। तुमने छोटे-से-छोटे रोज़गार के लिए अंग्रेजी अनिवार्य कर दी। तो लोग कह रहे हैं कि, “जब हिंदी से हमें रोटी मिल ही नहीं सकती तो हिंदी का करें क्या?” आज तुम स्थितियाँ ऐसी बना दो कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई, मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में हो सकती है, सब किताबें हिंदी में उपलब्ध रहेंगी और बाकी सब भारतीय भाषाओं में भी, तो लोग नहीं जाएँगे अंग्रेजी की ओर बेकार के तर्क होते हैं कि अंग्रेजी इंटरनेशनल (अंतर्राष्ट्रीय) भाषा है ये सब। “अंग्रेजी इंटरनेशनल भाषा है” ये बात वो बोल रहे हैं जिनकी सात पुश्तों में कोई इंटरनेशनल नहीं गया और ना आने वाली सात पुश्तों में कोई इंटरनेशनल जाएगा। इंटरनेशनल छोड़ दो वो एयरपोर्ट (हवाई-अड्डा) के आसपास भी नहीं भटकने वाले पर वो कहते हैं कि, “अंग्रेजी हम इसीलिए सीख रहे हैं क्योंकि इंटरनेशनल भाषा है।” तुम करोगे क्या इंटरनेशनल भाषा का? रहना तुम्हें यहाँ देश में है।
बात सीधी-सी ये है कि आम हिंदुस्तानी अंग्रेज़ी इसलिए सीखता है क्योंकि अंग्रेज़ी के बिना रोज़गार नहीं है। और बहुत कृत्रिम तरीक़े से हमने अंग्रेज़ी को रोजगार की भाषा बना दिया, जिसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। आपको रेलवे में रेल इंजन का चालक बनना है, लोको पायलट, आपको पुलिस में एक साधारण सिपाही बनना है, आपको अंग्रजी क्यों आनी चाहिए? जवाब दीजिए। वो भी छोड़िए, आपको एक अच्छा मेनेजर (प्रबंधक) बनना है उसके लिए भी अंग्रेजी क्यों आनी चाहिए? पर अच्छा कमाने-खाने के, कैरियर में तरक्क़ी करने के हर रास्ते पर आप अंग्रेजी को खड़ा कर देंगे तो लोगों को झक मारकर के अंग्रजी को गले लगाना पड़ेगा और हिंदी को अलग करना पड़ेगा। आज आप ये साबित कर दीजिए कि हिंदी के माध्यम से भी एक मस्त जीवन जिया जा सकता है, कमाया-खाया जा सकता है तो लोग आराम से हिंदी को पुनः गले लगा लेंगे।
अभी कुछ साल तक तो संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा ही आप नहीं दें सकते थे अंग्रजी के अलावा किसी और भाषा में, आईआईटी प्रवेश परीक्षा आप नहीं दे सकते थे। जेईई जो होता है, संयुक्त प्रवेश परीक्षा, वो आप नहीं दे सकते थे अंग्रेजी के अलावा किसी भाषा में, मेडिकल की पढ़ाई आज भी अंग्रेजी के अलावा किसी और भाषा में नहीं होती। जिस देश ने सुश्रुत दिया है, फादर ऑफ सर्जरी (शल्य-चिकित्सा के पिता), वो देश अपनी मिट्टी की भाषा में सर्जरी नहीं पढ़ा पाएगा? या सुश्रुत अच्छे शल्य-चिकित्सक इसलिए बने थे क्योंकि उन्हें अंग्रेजी आती थी? तो ये एक साज़िश रची गई है। जिन्होंने रची है वो कुछ धुर्त थे, कुछ बेवकूफ़। पर बात उनकी नहीं है बात हमारी है, कि हम आज भी उस साज़िश को आगे क्यों बढ़ा रहे हैं?
ये जितनी बात बोलते हो न कि हिंदी के साथ हमको हीनता होती है, वो सब अपने-आप दूर हो जाएंगी अगर हिंदी के साथ पैसा जुड़ जाए। हिंदी की समस्या बस ये है कि उसके साथ पैसा नहीं जुड़ा हुआ है, पैसा नहीं मिलता हिंदी वालों को। कैंपस प्लेसमेंट हो रहा है अंग्रेजी में, इंटरव्यू हो रहा है, कोई हिंदी बोल दे वो मारा जाएगा। तो फिर स्कूल अंग्रेजी पढ़ाते हैं कि इस लड़के को आगे जाकर के तो कैंपस प्लेसमेंट लेना है न। वहाँ ग्रुप डिस्कशन (सामूहिक चर्चा) हो रहा है, इंटरव्यू हो रहा है, वो सब अंग्रेज़ी में चल रही है।
इंजीनियरिंग में ऐसा क्या है जिसके लिए अंग्रेजी चाहिए? जो वेल्डिंग की रॉड होती है वो भाषा देखकर के काम करेगी? इलेक्ट्रिक सर्किट (विद्युत परिपथ) भाषा देखकर के काम करेगा? जो फ्लाईओवर बना रहे हो या पुल बना रहे हो या पोर्ट (बन्दरगाह) बना रहे हो वो भाषा देखकर के काम करते हैं? अणुएँ आपस में भाषा देखकर के अभिक्रिया करते हैं? तो ये सब कुछ अंग्रेजी में ही क्यों है?
कोई भी भाषा उतनी ही तरक्क़ी कर पाती है जितना उस भाषा को बोलने वालों के पास पैसा होता है; या तो बहुत पैसा हो या तो बहुत प्रेम हो। बहुत प्रेम हो ये तो दूर की कौड़ी है उसके लिए तो बड़ा आध्यात्मिक समाज चाहिए, तो पैसा हो। तीसरा विकल्प ये है — एक ऐसी सरकार हो जो अपनी संस्कृति को, भाषा को और लिपी को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हो। जर्मनी, फ्रांस, चीन, जापान, स्पेन इन्होंने प्रगति अंग्रेजी के दम पर नहीं करी है, अंग्रेजी कोई नहीं बोलता वहाँ पर, और सब विकसित मुल्क हैं। दुनिया में जितने लोग अंग्रेज़ी जानते हैं उसमें से भारतीयों को हटा दो तो हिंदी जानने और बोलने वालों की संख्या अंग्रेजी बोलने वालों से ज़्यादा है।
ऐसा कुछ भी नहीं है कि पूरी दुनिया में अंग्रेज़ी ही बोली जा रही है। पूरा-का-पूरा एक महाद्वीप, एक कॉन्टिनेंट और दक्षिण अमेरिका भर ही नहीं, पूरा जो लैटिन अमेरिका है वहाँ कौन अंग्रेज़ी बोल रहा है? यूरोप में भी आपको क्या लग रहा है सब अंग्रेज़ी ही बोल रहे हैं? फ़्रेंच बिलकुल नहीं पसंद करते अगर आप उनसे अंग्रेज़ी में बात कर दीजिए तो। चाहे जर्मन्स हों, चाहे इटेलियन्स हों, रूसी हों, जापानी हों; तो अपनी भाषा में बिलकुल तरक्क़ी की जा सकती है।
आर्थिक तरक्क़ी जापान की हुई है या भारत की हुई है? जापान में जैपनीज़ है भारत में अंग्रेज़ी है, पर आर्थिक तरक्क़ी तो जापान ने करी। और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बिलकुल बर्बाद हो गया था, एकदम तबाह, हर तरीके से। कहाँ है जापान आज? और अंग्रेज़ी के दम पर नहीं, अपनी मातृभाषा के दम पर जापान आज शिखर पर है और भारतीय कह रहे हैं, “हमें लिंगवा फ्रैंका चाहिए।”
कितनी तरक्की कर ली लिंगवा फ्रैंका से?
जोकर जैसे और लगते हैं, अंग्रेज़ी बोलने नहीं आती बोलने की कोशिश कर रहे होते हैं। मेरा हिंदी में एक वीडियो होगा वहाँ नीचे जाकर लिखेंगे ‘आई एम सपोर्ट यु’। ठेठ हिंदी प्रदेश से हैं ये टिप्पणीकर्ता और लिख रहे हैं, ‘आई एम सपोर्ट यु’। काहे ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ नहीं पढ़े थे क्या? और उस त्रुटिपूर्ण अंग्रेजी को भी लघु रूप में लिखते हैं।
जोकर! क्या दुर्दशा कर ली हमने अपनी। पूरी दुनिया के हम जोकर बन गए।