लेखन ने मेरे अनगढ़ व्यक्तित्व को भी सँवारा है : डॉ प्रज्ञा शर्मा 

हिन्दू-मुस्लिम एकता मद्देनजर हिन्दी व उर्दू की गंगा जामुनी तहज़ीब वाली हिन्दुस्तानी ज़बान को लेखन के माध्यम के रूप में चुनने वाली जानी मानी शायरा, कवियित्री डॉ प्रज्ञा शर्मा (Dr. Pragya Sharma) ने 2006 में अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत उन्नाव में 15 अगस्त के अवसर पर आयोजित कविसम्मेलन से की। आज वे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पटल पर मंच एवं साहित्य की दुनिया में जाना पहचाना नाम हैं। 

मुशायरा एवं काव्य मंचों पर अपने अनूठे प्रस्तुतीकरण से एक अलग पहचान बनाने वाली प्रज्ञा शर्मा का जन्म 1981 में उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ। उन्होंने शिक्षा – शास्त्र. में पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। पिता श्री बी. एल. शर्मा और माँ श्रीमती रमा शर्मा की प्रेरणा से कुछ दिन शिक्षण का काम करने के बाद उन्होंने साहित्य जगत में स्वयं को स्थापित किया। 

सपनों का शहर कहलाए जाने वाली मुम्बई नगरी को आपने अपना स्थाई निवास बनाया है। ‘गोपाल दास नीरज की हस्तलिखित कविताएँ’ नाम से उनकी पहली किताब 2019 में प्रभात पब्लिकेशन से प्रकाशित हुई। 

इसी के साथ कोरोना काल के मध्य कोरोना काल को ही विषय बना कर उसका काव्यात्मक दस्तावेज तैयार किया, जिसे रेख़्ता पब्लिकेशन ने ‘मौत का ज़िंदगीनामा’ (काव्य संग्रह) नाम से 2021 में प्रकाशित किया, जिसे पाठकों से काफी सराहना मिली। इसके अलावा 20 से अधिक सााँझा काव्य संकलन में आपकी रचनाएं प्रकाशित हैं। आप कविसम्मेलन समिति की संस्थापको में से एक है और प्रज्ञा वेलफेयर फाउंडेशन की संस्थापक-निदेशक के रूप में विभिन्न सामाजिक कार्यों से संलिप्त हैं। 

पेश हैं कवियित्री डॉ0 प्रज्ञा शर्मा से बातचीत के कुछ खास अंश –

प्रज्ञा जी, बिना संघर्ष व्यक्ति जीवन में ऊचाईयाँ नही पाता। इस तौर पर आप अपने जीवन संघर्ष के विषय में कुछ बताएं?

उत्तर: हर व्यक्ति अपने जीवन में वो काम करना चाहता जिसमें उसे सुख मिलता है या सुख मिलने की संभावना होती है। इस तौर पर मैंने भी अब तक अपने लिए अथवा समाज के लिए जो भी किया अपने ही सुख के लिए किया। अपने ही अभीष्ट की सिद्धि हेतु किया। इसे मैं संघर्ष का नाम कैसे दे सकती हूँ। यूँ समझ लें मुझपर ईश्वर की विशेष कृपा रही। इसीलिए कानपुर से मुम्बई का सफ़र आसानी से तय कर पाई।

लेखन से जुड़ कर आपको क्या लगता है, इससे आपको क्या फ़ायदे नुक़सान हुए हैं? इसका आपके जीवन पर कितना असर है?

उत्तर: जहाँ तक फ़ायदे नुक़सान की बात है तो मुझे अभी तक लेखन से जुड़ने के कारण कोई नुक़सान नही पहुँचा है। हाँ फ़ायदे बहुत से हुए हैं। मेरे लेखन ने ही मुझे मंच दिए। लोगों से जुड़ने, दुनिया और दुनियादारी को समझने के मौके दिए। लेखन से मुझे आर्थिक लाभ मिला। मेरे लेखन ने ही मुझे अपने आप को पहचानने का मौक़ा दिया। कुल मिलाकर मुझे मेरी पहचान दी। 

जहाँ तक असर की बात है तो, आप जो सोचते- समझते हैं उसे शब्द रूप देने के बीच आप एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरते हैं। इसलिए मैं कह सकती हूँ कि मेरे लेखन ने मेरे अनगढ़ व्यक्तित्व को भी सँवारा है।

आप जब मंचों पर आईं तो आपको किस प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा? और मैंने यह भी सुना है कि आप प्रारम्भ में सस्वर रचना पाठ किया करती थीं। बाद में आपने तरन्नुम छोड़ दिया इसके पीछे क्या वजह रही?

उत्तर: देखिए मैं जब मंचों पर आई तो मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती मैं ख़ुद थी। मंचीय वातावरण मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। भविष्य में मैं स्वयं को जिस मुक़ाम पर देखना चाहती थी उस तरह और उस जगह स्वयं को स्थापित करने के लिए किसी भी तरह के समझौते की कोई गुंजाइश ही नही थी। शुरुआती मंचों पर जब मैं तरन्नुम में पढ़ा करती थी तो लोगों की तालियां और वाह- वाही मुझे ख़ूब मिला करती थी। लेकिन मुझे अपनी रचनाओं में कोई गहराई कोई नयापन नज़र नही आता था। जो मुझे दरकार था। तरन्नुम छोड़ने के पीछे ये एक बड़ी वजह रही। मैं सुरों के अभ्यास के स्थान पर अपने लेखन को सवांरने का अभ्यास करते रहना चाहती थी।

आज के कवि सम्मेलनीय मंचों की स्थिति के बारे में आपके क्या विचार हैं?

उत्तर: मुझे लगता है आज स्थिति पहले से कहीं ज़्यादा बेहतर है। पहले कविता शौक़ हुआ करती थी। लेकिन आज इन मंचों ने लेखन को पेशे के तौर पर चुनने की आज़ादी दे दी है।

हाँ इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि हम लेखन से धन तो अर्जित करें लेकिन धन के लिए लेखन ना करें। क्योंकि इससे लेखन का स्तर गिरता है और ये जायज़ नही।

क्या आपको नही लगता इस प्रकार मंचों का व्यवसायीकरण लेखन के नुक़सानदायक है?

उत्तर: जी मुझे तो ऐसा बिलकुल नही लगता। अब देखिए ना हमारी तमाम लोककलाएं इसीलिए तो ख़त्म होने के कागार पर आ गईं क्योंकि उन्हें जीवित रखने वाले कलाकार धन के अभाव में दूसरे व्यवसायों को करने के लिए बाध्य होते गए। आज अगर कवि मंचों से धन लाभ जुड़ गया है तो इसमें ग़लत क्या है।

आए दिन साहित्यिक उपलब्धियों हेतु दिए जाने वाले पुरुस्कारों पर प्रश्न चिह्न लगा करते हैं। इस संबंध में आपकी राय?

उत्तर: इस विषय पर मेरा व्यक्तिगत मत ये है कि पुरस्कार की प्राप्ति, पुरस्कृत होने का कारण, पुरस्कृत व्यक्ति की योग्यता एवं पुरस्कार के मापदण्ड ये सब बातें बिलकुल अलग- अलग हैं। जब इन सब बातों का मूल एक होता है तो पुरस्कृत व्यक्ति पुरस्कार ग्रहण कर, अपना एवं पुरस्कार दोनों का मान बढ़ाता है। और जब ये कारण अलग- अलग होते हैं तो इसका विपरीत होता है।

जी पुरस्कारों की बाबत आपने सही समझाया। और साथ ही साथ मैं ये भी समझ रहा हूँ कि आप कहीं- कहीं मेरे सवालों के साफ़ उत्तर देने से बच भी रही हैं।

उत्तर: (हँसते हुए) जी साफ़ उत्तर देने की कोशिश में उत्तर ग़लत ना हो जाए इस बात का ख़याल तो रखना ही चाहिए। बाकी, समझदार को इशारा काफ़ी है और आज का पाठक समझदार भी है जागरूक भी। इस बात पर मुझे पूरा यक़ीन है।

साहित्यकार के तौर पर ख़ुद को कहाँ देख पाती हैं आप?

उत्तर: अभ्यासरत विद्यार्थी के तौर पर देखती हूँ स्वयं को। वो विद्यार्थी जिसके लिए सतत अध्ययन एवं अभ्यास ही उसकी मंज़िल है।

हाल में ही जश्न-ए-रेख़्ता में आपने शिरकत की इस आयोजन को लेकर आपका अनुभव कैसा रहा? 

उत्तर: बहुत अच्छा अनुभव रहा। सबसे अधिक ख़ुशी इस बात को देखकर हुई कि नई पीढ़ी अच्छी शायरी को समझ रही है।

‘रेख़्ता’ से प्रकाशित आपका बहुचर्चित काव्य संग्रह ‘मौत का ज़िंदगीनामा’ की सफलता से आप कैसा महसूस करती हैं? पाठकों से मिली कुछ विशेष प्रतिक्रिया जिनका आप जिक्र करना चाहें?

उत्तर: मैं कुछ अलग महसूस नहीं कर पाती हूँ बस ऐसा लगता है, प्रकृति इन कविताओं के लिए किसी को निमित्त बनाना चाहती तो मुझे बना लिया। भविष्य में लॉकडाऊन के विषय पर जब भी कोई खोज होगी तो ये कवितासंग्रह उस खोज में सहयोगी की भूमिका निभा सकेगा। 

रही बात पाठकों की प्रतिक्रिया की तो वे मुझे उत्साहित करती हैं। ‘रेड लाईट’, ‘पेस्ट- कंट्रोल’, ‘वरदान छिन गया’,  ‘रेलवे प्लेटफॉर्म्स पर’, ‘आसमान फ़ुर्सत में है’ आदि कविताओं को पाठकों और श्रोताओं का बहुत प्रेम मिला है। इन्हें पढ़ने वाले पाठकों का सदैव सुझाव रहा कि मैं इन कविताओं को अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर के सोशल मीडिया पर अपलोड करूँ लेकिन समयाभाव के कारण मैं ऐसा नहीं कर पाई इसी के साथ मेरी एक ये भी इच्छा रही कि लोग पुस्तक को ख़रीद कर पढ़ें। ख़रीद के मामले में ये किताब बेस्टसेलर रह चुकी है। 

लेखन के अलावा आपके शौक में और क्या-क्या शुमार है?

उत्तर: कुछ बरस पहले आप ये सवाल पूछते तो शायद इसका उत्तर दे पाती अभी तो याद नहीं आ रहा। वैसे वक़्त मिलने पर प्रकृति का सानिध्य मुझे आकर्षित करता है। 

मुम्बई शहर में रहते हुए आपको 10 से अधिक वर्ष हो चुके हैं। इस बीच यहाँ स्थाई तौर पर आपने अपना आशियाना भी बना लिया। आपका इस शहर से कैसा रिश्ता रहा हैं?  

उत्तर: शहर से मेरे रिश्ते के बारे में बस यही कहूँगी कि शहर मुझे रास आया। माँ मुम्बा देवी की मुझपर विशेष कृपा रही जो उन्होंने मुझे कभी भटकने नहीं दिया, न ही काम के लिए किसी का दरवाज़ा खटखटाने हेतु बाध्य किया। हो सकता है मैंने ईश्वर से उसके अलावा कुछ माँगा नहीं इसलिए ऐसी नौबत नहीं आई। वरना तो मेरे सामने ही कितने लोग आए और लौट जाने पर मजबूर हो गए।

नए वर्ष में आपकी क्या योजनाएं हैं? आपकी अगली पुस्तक कब आ रहीं है? 

उत्तर: दो पुस्तकों का लेखन कार्य पूर्ण हो चुका है, जिनमें से एक मेरा ग़ज़ल संग्रह है और एक आध्यात्मिक विषय पर कविता संग्रह है। ये दोनों पुस्तकें 2023 में आ जाएंगी। 

आप कई बड़े मुशायरों और कवि सम्मेलनों के अलावा पूर्व में कविताओ पर आधारित टीवी शोज में काव्यपाठ कर चुकी हैं। इसके बारे में थोड़ा बताएं

उत्तर: जी, मैं जब मुम्बई नई- नई आई थी तब शैलेश लोढा जी के कार्यक्रम बहुत ख़ूब के कुछ एपिसोड किये थे। इसके अलावा ई टी0 वी0 उर्दू, ज़ी सलाम, दूरदर्शन सह्याद्रि, लखनऊ दूरदर्शन आदि के लिए भी कार्यक्रम कर चुकी हूँ। आज़ादी के अमृत महोत्सव के दौरान मुम्बई दूरदर्शन के कार्यक्रम में भी भाग ले चुकी हूँ। 

आपने सिगरेट जैसे शब्द को शायरी का आधार बनाया है ऐसा क्यों?

उत्तर: जी सिगरेट मेरी शायरी का आधार नहीं है हाँ ये ज़रूर कह सकते हैं कि इस विषय पर मैंने सर्वाधिक शेर कहे हैं। मैंने ऐसा किया नहीं स्वतः होता चला गया।  धीरे- धीरे इस विषय पर कहे अशआर मेरी पहचान बनते गए। 

इस नए प्रयोग वाले कुछ शेर सुनाएं?

उत्तर: जी ज़रूर-

‘वफ़ा का इससे ज़ियादा सबूत क्या देती

मैं राख हो तो गई उसकी सिगरटों की तरह’

‘मैं अकेली रह गई हूँ ऐश ट्रे की राख में

साथ उसके जा चुका है उसकी सिगरट का धुवाँ’

‘जिसे भुलाने को मैं सिगरटें जलाती हूँ

उसी की शक़्ल बनाता है ये धुआँ अक्सर’

‘तुम्हारी याद की सिगरट जला के रोई थी

धुवें के सीने पे सर रख के रात सोई थी’

2019 में प्रकाशित आपकी ‘गोपाल दास नीरज की हस्तलिखित रचनाएँ’ पुस्तक के सम्बंध में कुछ बताएँ

उत्तर: जब नीरज जी से मेरी भेंट हुई तो बातों के दौरान उन्होंने बताया कि गिरते स्वास्थ्य के कारण वे काफ़ी अरसे से अपने पाठकों को कोई नई पुस्तक भेंट नहीं कर पा रहे हैं। 

इसी दौरान मेरे मस्तिष्क में इस पुस्तक का विचार कौंधा। मुझे लगा यदि एक सिग्नेचर को डीकोड करके किसी के व्यक्तित्व को जाना जा सकता है तो उसकी हस्तलिपि का तो बड़ा ही महत्व होगा। क्यों न नीरज जी की कविताएं उन्हीं की हस्तलिपि में स्कैन करके छापी जाएँ। ये एक तरह का नया प्रयोग भी था और आने वाली नस्ल के लिए नायाब तोहफ़ा भी था। 

लेकिन समस्या ये थी कि उस समय तक उनके हाथ बहुत कांपने लगे थे। इसलिए वे डिक्टेट करते थे और कोई अन्य व्यक्ति उसे लिपिबद्ध किया करता था। लेकिन कहते हैं न इच्छाशक्ति यदि दृढ़ हो तो ईश्वर भी मार्ग देता है और प्रकृति भी सहयोग करती है। मैं चार दिन के लिए अलीगढ़ उनके साथ रही। मेरे पहुँचते ही उन्होंने कहना आरम्भ कर दिया था कि प्रज्ञा कुछ पन्नो की बात अलग है, लेकिन एक पूरी पुस्तक के लिए लेखन मैं नहीं कर सकता। मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं देगा, लेकिन मुझे विश्वास था और वो फलित हुआ मैं दिन भर उनका हौसला बंधाती रहती थी। उनका ग़ुस्सा बर्दाश्त करती थी। वे हर घण्टे के बाद कहते मैं अब नहीं लिख सकता तो मैं उन्हें समझाती और मनुहार करती। यदि लिखते- लिखते थक कर उन्हें झपकी आ जाती तो मैं वहीं बैठी उनके जागने का इंतज़ार करती थी। इन बातों से वे अत्यंत परेशान हो जाय करते थे उनकी हालत देख कर मुझे भी ग्लानि तो होती थी लेकिन मेरी अंतश्चेतना कहती थी कि यदि एक झोंके में ये काम हो गया तो ठीक वरना बाद में मुमकिन नहीं। और हुआ भी यही।

इस पुस्तक की पूरी कहानी बड़ी रोचक है जो कि इस पुस्तक में दर्ज़ है। ये पुस्तक 2019 में प्रभात पब्लिकेशन दिल्ली से प्रकाशित हुई है।

चलते- चलते क्या आप नई पीढ़ी को कोई संदेश देना चाहेंगी?

उत्तर: आज का युवा हमसे कहीं अधिक समझदार है। ये जो चाहता है उसे प्राप्त कर ही लेता है। सुझाव देने के स्थान पर इनका साथ देना और इनपर विश्वास बनाए रखना काफ़ी है।

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