इस देश में अद्भुत ‘चमत्कार’ किए हिंदुस्तानी, मजदूरी को गए थे और बन गए मालिक!

आज हम आपको इस लेख में मॉरीशस में गिरमिटिया मजदूरों की कहानी से परिचित कराएंगे। कुछ पाठक हमारे ऐसे भी हो सकते जो इस नाम से परिचित भी न हो। ऐसे पाठकों की यह समस्या इस लेख को पढ़ने के बाद दूर हो जाएगी। गिरमिटिया मज़दूर लगभग 180 साल पुराना जख्म है, जो अंग्रेजों से हमें मिला है। वैसे तो बहुत से जख्म अंग्रेजों ने हमें दिए हैं, लेकिन गिरमिटिया मजदूरों की कहानी को हम चाह कर भी नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं।

दरअसल, जो भारतीय मॉरीशस में गिरमिटिया मजदूर बनकर गए थे वो आज वहां मालिक बन गए हैं। मॉरीशस के निर्माण का श्रेय गिरमिटिया मजदूरों को दिया जाता है। इसलिए 2 नवंबर को मॉरीशस में भारतीय आगमन दिवस भी मनाया जाता है। क्योंकि 188 वर्ष पूर्व 2 नवंबर के दिन ही  एटलस नाम का एक जहाज भारतीय मजदूरों को लेकर मॉरीशस पहुंचा था। इस दिन बड़ी संख्या में भारत से लोगों को मॉरीशस मजदूरी कराने लाया गया है, जिनमें से अधिकतर उत्तर प्रदेश और बिहार से थे। एटलस  जहाज से आने वाले मजदूरों को गिरमिटिया मजदूर कहा जाता है, जिसका मतलब होता है कि समझौते के आधार पर लाये गये मजदूर।

क्या है गिरमिटिया मजदूरों की कहानी?

देखा जाये तो गिरमिटिया मजदूरों की कहानी को आज तक इतना कहा-सुना नहीं गया है। ये वो भारतीय थे जो अपनी मातृभूमि छोड़कर विदेश में जा बसे और वहां रहकर उन्हें कई तरह की यातनाओं का सामना करना पड़ा था। ब्रिटिश राज के दौरान भारत में उद्योग व्यापार समाप्त हो चुके थे। यदि हम औपनिवेशिक भारत के आर्थिक मॉडल को समझें तो इतिहास में हुई बहुत-सी घटनाएं सरलता से समझ में आ जाएगी। अंग्रेजों ने भारत में कच्चे माल की आपूर्ति पर एकाधिकार कर लिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में अतिरिक्त कच्चे माल की आपूर्ति किसी और को नहीं की जा सकती थी। कच्चे माल की किल्लत ने भारत के हर छोटे बड़े व्यापार को समाप्त कर दिया, तेल से लेकर सुई तक, सबका निर्माण ब्रिटिश फैक्ट्रियों में होने लगा।

1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी का भारतीय व्यापार से एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और भारत का बाजार इंग्लैंड की सभी कंपनियों के लिए खोल दिया गया। कम शब्दों में कहें तो भारत की लूट के लिए ब्रिटेन की हर कंपनी को लाइसेंस मिल गया था। 1818 में मराठा साम्राज्य के अंतिम भारतीय शासक को अंग्रेजों ने परास्त कर दिया। 1833 के चार्टर एक्ट में कंपनी के अंतिम व्यापारिक एकाधिकार भी खत्म कर दिए गए। दूसरी ओर दुनिया भर में फैले उपनिवेशों पर अब चाय, नील, कॉफ़ी, चावल और गन्ने के उत्पादन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए श्रमिकों की आवश्यकता थी। वहीं, भारत से कच्चे माल के साथ अब श्रम का निर्यात भी शुरू होने वाला था।

स्थानीय उद्योगों का व्यापार चौपट होने के बाद अब भारतीयों के पास केवल दो विकल्प थे। पहला था कि लोग खेती करें लेकिन भारत में उद्योग बहुत विस्तृत था, सभी जातियों का अपना-अपना व्यापार था। वहीं, ब्रिटिश राज में व्यापार पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था और अब इतने लोगों के लिए रोजगार का आधार केवल कृषि बचा था। ऐसे में खेती पर अत्यधिक दबाव बना हुआ था। स्थिति भयावह होती जा रही थी।

मजदूरी के लिए लाये गये थे भारतीय और फिर…

1833 में दास प्रथा उन्मूलन कानून खत्म हुआ और दास व्यापार बन्द हो गया। लेकिन श्रमिकों की आवश्यकता समाप्त नहीं हुई। भारतीयों के पास कोई कार्य नहीं था। वहीं, दूसरे विकल्प के तौर पर अंग्रेजों ने भारतीयों को श्रमिक के रूप में विदेशों में कार्य करने का प्रस्ताव दिया और यहीं से शुरू हुआ अनुबंध श्रम या परमिट सिस्टम। इसी परमिट वाले श्रमिक को आम बोलचाल में परमिटिया और फिर गिरमिटिया कहा गया। जहाज से विदेश जाने पर इनको जहजिया नाम से भी पुकारा जाने लगा। गिरमिटिया मजदूरों को कैरेबियाई द्वीपों, दक्षिण अमेरिका के देशों सहित मॉरीशस, फिजी आदि स्थानों पर भेजा गया।

यहां यह जान लें कि गुलामी और गिरमिटिया में अंतर होता है। पैसे चुकाने के बाद भी गुलाम मुक्त नहीं होता था। वहीं गिरमिटियों को समझौते के तहत पांच साल बाद छूटने की आजादी तो थी, परंतु यहां समस्या यह होती थी कि उनके पास भारत वापस लौटने के पैसे तक नहीं होते थे, जिस कारण उन्हें मजबूरन वहां रुकना पड़ा।

गिरमिटिया मजदूरों को तमाम तरीकों से प्रताड़ित किया गया था। चाहे वो औरत हो या पुरुष गिरमिटियाओं को विवाह करने का अधिकार नहीं था। यदि वे विवाह कर भी लेते तो उन पर गुलामी वाले नियम लागू होते थे। गिरमिटियों की संतान मालिकों की संपत्ति होती थीं। फिर मालिक चाहे तो उन्हें दूसरों को बेचें या फिर उनसे बड़ा होने पर काम कराए। गिरमिटिया 12 से 18 घंटों तक रोजाना जी-तोड़ मेहनत करते थे। उनको केवल जीवित रहने के लिए भोजन, वस्त्रा आदि दिये जाते थे। इस प्रकार की अमानवीय परिस्थितियों में काम करते-करते हर वर्ष सैकड़ों मजदूरों की मृत्यु तक हो जाती थी।

मॉरीशस में बसता है छोटा भारत

आज देखा जाये तो मॉरीशस में “छोटा भारत” बसता है। यहां की आबादी में करीबन 60 फीसदी से अधिक भारतीय हैं। ये भारतीय मूल के लोग हैं जिनके पूर्वज यहां गिरमिटिया मजदूर बनाकर लाये गये थे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतनी यहां काम करती रही। यह उनकी मातृभूमि तो भले ही नहीं थी परंतु यह उनकी कर्मभूमि रही और इन्हीं मजदूरों ने दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत से मॉरीशस के निर्माण में अहम योगदान निभाया। गिरमिट मजदूरों से मुक्त होने के बाद वतन वापस लौटने से अधिक बेहतर वहीं बस जाना समझा और उसके बाद कुछ वहां पर स्वतंत्र मजदूर बनकर और कुछ अपना काम करके अपना जीवनयापन करने लगे। इसके चलते वहां भारतीय की संख्या बढ़ने लगी और वे मजबूत स्थिति में आ गए। प्रवासी भारतीयों की संख्या जब बढ़ने लगी और वे समृद्ध होने लगे तो उन उपनिवेशों में रहने वाले अंग्रेज़ उनसे ईर्ष्या करने लगे और उनके विरोधी बन गये। परंतु इस दौरान वे यह भूल गये कि किया धरा तो सब अंग्रेजों का ही था। वे मजदूर बनाकर उन्हें यहां लाये और फिर उनकी सेवाओं का काफी लाभ भी उठाया। 1917 में गिरमिटिया प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था।

गिरमिटिया मजदूर जब मॉरीशस आये थे तो वे इस अनजान देश में अपने साथ अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति भी लाये थे। उन्होंने इसे सहेजकर रखा और पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते चले गये। बहुत से लोगों ने रामचरितमानस, भगवत गीता आदि के माध्यम से अपनी हिंदू पहचान को जीवित रखा। यहां तक कि मॉरीशस की आजादी तक में भारतीयों का योगदान रहा। भारतीय मूल के सर शिवसागर रामगुलाम की अगुआई में ही मॉरीशस को 1968 में आजादी मिली थी। तो कुल मिलाकर देखा जाए तो मॉरीशस की आजादी से उसके विकास तक में भारतीय ने अपना अमूल योगदान दिया है। यही वजह है कि जिस देश में भारतीय मजदूर बनकर गए थे, उस देश में आज वही भारतीय मालिक बन गये हैं। भारतीयों ने विदेश में एक और भारत का निर्माण किया है।

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