जिसे हमने ठुकराया उसे गोरों ने अपनाया, हमारी तरह आप भी हो जाइये शर्मिंदा !

यह कितनी गंभीर विडंबना है कि भारतीयों ने अपनी जिस उन्नत सांस्कृतिक विरासत को उपेक्षित करके ठुकरा दिया, उसका मूल्य विदेशियों ने समझा और अब वह उसे अपनाकर न सिर्फ पर्यावरण बचा रहे हैं, बल्कि प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर अच्छी खासी कमाई भी कर रहे हैं। दूसरी तरफ भारतीय पश्चिमी देशों की उपयोग करके फेंकी हुई शैली को अपनाने में गौरव का अनुभव कर रहे हैं।

चूल्हे पर मिट्टी के बर्तन में पकता है सेहतमंद भोजन

भारत की उन्नत संस्कृति में भोजन को केवल खाने की वस्तु या पदार्थ के रूप में नहीं लिया जाता है, बल्कि भोजन को अन्न देवता का स्थान दिया गया है और भोजन को स्वास्थ्यवर्धक बनाने के लिये उसे पकाने और खाने की शैली भी विकसित की गई थी। भारतीय संस्कृति में लकड़ी की अग्नि पर यानी चूल्हे पर (सामूहिक भोजन पकाने के लिये भाड़ में) मिट्टी के बर्तन में भोजन पकाने की विधि बताई गई है। चूल्हे में जलने वाली विविध प्रकार की लकड़ी में औषधीय गुण होते हैं, उनका धुँआ वातावरण में फैलकर हवा में व्याप्त हानिकारक जीवाणुओं को समाप्त करता है, होम-हवन में विशेषकर आम और चंदन जैसे पवित्र और पूजनीय वृक्षों की लकड़ी का उपयोग करने के पीछे भी वातावरण की शुद्धि का ही लक्ष्य होता था। औषधीय गुणों वाली लकड़ी की अग्नि और मिट्टी के बर्तन में पकाया गया भोजन सात्विक और पौष्टिक बनता है।

पत्तों पर परोसा गया भोजन होता है पौष्टिक

शास्त्रों में भोजन को ग्रहण करने की विधि भी बताई गई है। पकने के बाद भोजन गरमागरम ग्रहण करना चाहिये। भोजन पकने और ग्रहण करने के बीच उसकी पवित्रता, सात्विकता और पौष्टिकता बनाये रखने के लिये भोजन को विविध वृक्षों की पत्तलों पर परोसकर ग्रहण करने का विशेष महत्व है। पत्तों पर भोजन करने से स्वर्ण के बर्तन में भोजन करने जितना स्वास्थ्य लाभ मिलता है। भारत में सम्पन्न परिवार स्वर्ण और रजत यानी चांदी के बर्तनों में भोजन करते थे, वहीं ऋषि-मुनि तथा सामान्य परिवार पत्तों पर भोजन करते थे।

परंपरा के अधःपतन ने किया नाश

धीरे-धीरे परंपरा की अधोगति होती गई और स्वर्ण-चंद्र के स्थान पर अन्य धातुओं के बर्तन स्थान लेते गये। भोजन के लिये पीतल के बर्तन चलन में आये, और जल के लिये ताँबे के बर्तन प्रयोग किये जाने लगे। जब वह भी महँगे पड़ने लगे तो मिश्र धातु कांसे के बर्तन प्रयोग किये जाने लगे। इसके बाद जो अधोगति हुई उसने स्टील और एल्युमीनियम के बर्तनों पर आ गये, पेट में लोहा जाने से तरह-तरह की बीमारियाँ होने लगी और वैचारिक अधःपतन भी होने लगा। आपको बता दें कि प्रेशर कूकर में भोजन पकाने से भोजन के 100 में से 96 प्रतिशत पौष्टिक तत्व खत्म हो जाते हैं।

अंबानी परिवार खाता है मिट्टी के बर्तनों में पका भोजन

आपको जानकर हैरानी होगी, परंतु यह सत्य है कि देश के सबसे बड़े उद्योगपति अंबानी परिवार में आज भी चूल्हे और मिट्टी के बर्तनों में भोजन पकाया जाता है। ओडिशा के जगन्नाथपुरी में स्थित देश के चारधामों में से प्रथम भगवान जगन्नाथ के मंदिर में भी लाखों की तादाद में आने वाले दर्शनार्थियों और भक्तों के लिये मिट्टी के बर्तनों में ही भोजन पकाने की प्रथा है। आप भी मिट्टी के बर्तनों में भोजन पकाकर उसे केले या अन्य बड़े-बड़े पत्तों से बनी पत्तल पर भोजन परोसकर खा सकते हैं। यह भोजन सेहत के लिये तो श्रेष्ठ होता ही है, इसका स्वाद भी आपको प्रभावित किये बिना नहीं रहेगा।

भारतीय पत्तलों को जर्मन कंपनी ने बनाया बिज़नेस

पर्यावरण का जिस गति से पतन हो रहा है, उसे लेकर पूरा विश्व चिंतित तो है परंतु पर्यावरण सुरक्षा के लिये काम करने की बात आती है तो कदम पीछे हट जाते हैं, परंतु यूरोपीय देश जर्मनी ने पर्यावरण सुरक्षा की दिशा में जो कदम उठाया है, वह अत्यंत सराहनीय है। जर्मनी की एक स्टार्ट-अप कंपनी LEAF REPUBLIC ने पत्तों से बने विविध आकार के दोने-पत्तल की ऑनलाइन बिक्री शुरू की है। यह पत्तल इकोफ्रेंडली होने से जर्मनी के लोग भी इसे अपना रहे हैं। इस कंपनी के लोगों ने भारतीय पत्तलों से प्रभावित होकर यह बिज़नेस शुरू किया और अब जर्मनी के होटलों में पत्तलों की माँग तेजी से बढ़ रही है। यह कंपनी एक दर्जन पत्तलों को 600 रुपये में बेचती है। जबकि भारत में कुछ पहाड़ी इलाकों हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड आदि तथा कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में अभी भी पत्तलों का चलन हैं। जबकि देश के अधिकांश भाग में लोग पत्तलों को पुरानी और पिछड़ी परंपरा बताकर ठुकरा चुके हैं और पश्चिमी पार्टी कल्चर को अपना रहे हैं।

वर्तमान समूह भोजन परंपरा है गिद्ध पार्टी

पश्चिमी पार्टी कल्चर को भारतीय परंपरा में ‘गिद्ध पार्टी’ कहा जाता है। जैसे गिद्ध भोजन देखते ही उस पर सामूहिक रूप से टूट पड़ते हैं, वैसे ही आजकल की पार्टियों में लोग थर्मोकॉल की थालियाँ लेकर भोजन पर टूट पड़ते हैं और स्वयं को सभ्य समाज भी कहते हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है ? सोचियेगा जरूर और दूसरे देश हमारी वस्तुओं का पेटेंट करा लें, उसके बाद हो-हल्ला मचाने से कुछ नहीं होगा। पर्यावरण के लिये अपनी संस्कृति का सम्मान कीजिये और उसे अपनी जीवनशैली में अपनाकर उन्नत जीवन जिएँ।

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