लॉकडाउन में लाचारी : सड़क पर मारे जा रहे मजदूर, पटरी पर दौड़ रही ‘ट्रेने’

नई दिल्ली :  एक तरफ श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चल रही हैं। राजधानी की तर्ज पर पटरियों पर स्पेशल एसी ट्रेनें फर्राटे मार रही हैं। विदेशों में फंसे भारतीयों को लाने के लिए ‘वंदे भारत’ अभियान चल रहा है, हवाई जहाज उड़ान भर रहे हैं। दूसरी तरफ जगह-जगह सड़कों पर सिर पर गृहस्थी लादे पैदल जा रहे मजदूरों के मंजर भी आम है और उनकी जान भी इतनी सस्ती कि कभी पटरियों पर मारे जा रहे हैं तो कभी सड़कों पर रौंदे जा रहे। पिछले कुछ घंटों में ही अलग-अलग सड़क हादसों में 16 प्रवासी मजदूरों की मौत हो चुकी है।

पंजाब से पैदल ही बिहार जा रहे 6 मजदूरों को यूपी के मुजफ्फरनगर में बस ने रौंद दिया। बीती रात मध्य प्रदेश के गुना में एक बस और ट्रक की टक्कर में करीब 8 मजदूरों की मौत हो गई जबकि 50 लोग घायल हो गए। सभी मृतक 8 मजदूर महाराष्ट्र से चले थे और यूपी में अपने-अपने गांव जा रहे थे। बिहार के समस्तीपुर में प्रवासी मजदूरों से भरी बस और ट्रक की टक्कर में 2 मजदूरों की मौत हो गई, 12 जख्मी हो गए।

सब कुछ लुटाने को मजबूर कि घर पहुंचे, लेकिन मिल रही मौत
लॉकडाउन को 50 दिन हो चुके हैं। काम-धंधा बंद हैं। पैसे नहीं हैं या खत्म होने को हैं। शहरों में फंसे प्रवासी मजदूरों के सामने रहने और खाने-पीने का संकट है। कोरोना से बच भी जाएं तो कहीं भूख से न मर जाएं, यही सोचकर मजदूर पैदल ही सैकड़ों-हजारों किलोमीटर के सफर पर अपने घरों के लिए निकलते जा रहे हैं। जिनके पास थोड़े बहुत पैसे बचे हैं वे रास्ते में कभी किसी ट्रक पर सवार होते हैं तो कभी किसी ट्राले में। इसके लिए भी इन मजबूर मजदूरों से ट्रक वाले हजारों रुपये ऐंठ रहे हैं। मजदूर अपनी सारी कमाई इस आस पर लुटाने को मजबूर हो रहे हैं कि कम से कम घर तो पहुंच जाएंगे लेकिन उन्हें मिल क्या रही है? मौत।

अखिलेश का सवाल- गरीबों की जिंदगी इतनी सस्ती क्यों
विपक्ष सवाल उठा रहा है कि गरीबों के लिए पर्याप्त बसों, ट्रेनों का इंतजाम क्यों नहीं हो सकता? यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सड़कों पर मारे जा रहे मजदूरों का मुद्दा उठाते हुए सवाल कर रहे हैं कि गरीबों की जान इतनी सस्ती क्यों, ‘वंदे भारत’ मिशन के दायरे में ये मजलूम क्यों नहीं?

2 हफ्ते से चल रहीं श्रमिक स्पेशल ट्रेनें तो सड़क पर मजदूर क्यों?
प्रवासी मजदूरों के लिए ही श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं। जब इन ट्रेनों को चलाने का ऐलान हुआ तो प्रवासी मजदूरों को उम्मीद बंधी थी कि अब वे सुरक्षित अपने घर पहुंच जाएंगे। श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को चलते हुए 2 हफ्ते होने को हैं लेकिन तस्वीर नहीं बदली। अब भी वही मंजर है। चिलचिलाती धूप में पैदल चल रहे मजदूरों का रेला सड़कों पर वैसे ही दिखाई दे रहा है। इनमें महिलाएं भी हैं तो बच्चे भी। चलते-चलते कई के चप्पल टूट चुके हैं तो तपती सड़क पर नंगे पांव ही चल रहे हैं। पैरों में छाले हैं।

आज दुत्कार रहे, कल इन्हीं मजदूरों के लिए गिड़गिड़ाएंगे राज्य
श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के चलने के बावजूद ये मजदूर पैदल चलने को क्यों मजबूर हैं? इन मजदूरों को भी पता है कि ट्रेनें चल रही हैं लेकिन ज्यादातर को नहीं पता कि उन्हें ये मिलेंगी कैसे। रजिस्ट्रेशन कैसे होगा? तभी तो कुछ जगहों पर प्रवासी मजदूर स्टेशनों पर पहुंच जा रहे हैं कि वहां काउंटर से टिकट लेकर ट्रेन पकड़ लेंगे। अभी भी कई मजदूरों को नहीं पता कि काउंटर से कोई ट्रेन टिकट नहीं मिल रहे हैं। आखिर किसकी जिम्मेदारी है कि मजदूरों को श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की सुविधा सुनिश्चित हो। सड़कों पर मजदूर मर रहे हैं लेकिन न तो केंद्र सरकार को उसकी कोई चिंता दिख रही है और न ही राज्य सरकारों की। कई जगह तो कुछ राज्यों में मजदूरों को सीमा पर छोड़ दिया जा रहा कि जाओ, अब जैसे भी जाओ। अंदाज ऐसा जैसे कि बला टली। कुछ दिन बाद जब काम-धंधे शुरू होगें, फैक्ट्रियां पूरी तरह चालू होने लगेंगी तो यहीं राज्य इन्हीं प्रवासी मजदूरों को वापस लाने के लिए गिड़गिड़ाएंगे जिन्हें आज दुत्कारा जा रहा है।

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